क्रान्तिगाथा-२९

अँग्रेज़ों के द्वारा किये जा रहे आर्थिक शोषण के कारण हुई भारतीय समाज की दयनीय स्थिति देखकर वासुदेव बळवंत फडके ने फिर भारतीय समाज में जागृति करने का कार्य शुरू कर दिया। इस कार्य के लिए उन्होंने कई इलाक़ों की यात्रा की और इसी दौरान सशस्त्र क्रान्ति ही अँग्रेज़ों को प्रतिकार करने का उपाय है यह बात उनके मन में जड़ें पकड़ने लगी। तब इस दिशा में कदम उठाना उन्होंने शुरू कर दिया। अँग्रेज़ों के खिलाफ लड़नेवाली सशस्त्र सेना का निर्माण करने के लिए जान निछावर कर देनेवाले देशभक्त, शस्त्र-अस्त्र और उन्हें बनाने एवं खरीदने के लिए धन की आवश्यकता थी।

वासुदेव बळवंत फडकेवासुदेव बळवंत फडकेजी की कोशिशों में उनका साथ दिया, समाज के पिछड़े माने जानेवाले वर्ग ने। शस्त्र-अस्त्र खरीदने के लिए उन्होंने अँग्रेज़ों की तिजोरियों में से धन हथियाने का रास्ता अपनाया, क्योंकि यहाँ के अँग्रेज़ों की तिजोरियों में रहनेवाला धन आख़िर भारतीयों का ही धन तो था!

इस तरह सशस्त्र एवं प्रशिक्षित सेना का निर्माण करके वासुदेव बळवंत फडकेजी ने अँग्रेज़ों को भारी टक्कर दी। उन्होंने अँग्रेज़ों की नाक में इस क़दर दम कर दिया कि अँग्रेज़ हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गये। आख़िर वासुदेव बळवंत फडकेजी को पकड़ने में अँग्रेज़ों को क़ामयाबी मिल गयी, लेकिन इसकी वजह गद्दारी यह थी। गिऱफ़्तार होने के बाद भी फडकेजी ने दो बार कारागृह से निकलने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। आख़िर उन्हें एडन की जेल में भेज दिया गया और १७ फरवरी १८८३ को इस क्रान्तिवीर ने आख़िरी साँस ली।

अँग्रेज़ों को नेस्तनाबूद करने के लिए की जा रही सशस्त्र क्रान्ति की कोशिशें हालाँकि प्राय: क़ामयाब नहीं हो रही थीं, मग़र इस दौरान १८५९ में अँग्रेज़ों के ख़िलाफ किया गया एक नि:शस्त्र आंदोलन बहुत ही सफल रहा। ब्रिटन में कपड़ा उद्योग में का़फी तेज़ी आ गयी थी और कपड़ों को डाय करने के लिए वहाँ से नील (इंडिगो डाय) की माँग काफी बढ़ गयी। परिणामस्वरूप भारत के बंगाल और बिहार के इलाक़ों में किसानों पर नील की खेती करने की ज़ोर ज़बरदस्ती अँग्रेज़ करने लगे। इसके बदले में अँग्रेज़ अफसर उन किसानों को बहुत ही कम पारिश्रमिक देते थे और उनके साथ अ‍ॅग्रिमेंट भी करते थे। यह जो मामूली रक़म किसानों को दी जाती थी, उसे ‘ददनी’ कहा जाता था और वह ‘ददनी प्रथा’ के नाम से ही मशहूर थी। हक़ीकत यह थी कि उस नील को बाज़ार में अच्छी खासी क़ीमत मिलती थी, लेकिन उसका फायदा मेहनत करनेवाले किसानों को कभी नहीं मिलता था, उन्हें तो ‘ददनी’ पर ही गुज़ारा करना पड़ता था।

अँग्रेज़ों की इस नाइन्साफी के ख़िलाफ ‘नदिया’ जिले के गोविन्दपुर गाँव के दो किसान खड़े हो गये। देखते ही देखते यह ज्वाला मुर्शिदाबाद, बीरभूम, बरद्वान, खुलना, पाबना आदि गाँवों में भी फैल गयी। किसानों ने नील की खेती करने से साफ इनकार कर दिया। फिर अँग्रेज़ों ने इस आन्दोलन को दबा देने के लिए उनके हमेशा के शस्त्र बाहर निकाले। बहुत बड़ी संख्या में किसानों को गिरफ्तार करके उन्हें दोषी क़रार देकर उनकी हत्याएँ की गयीं। मग़र फिर भी इस दबावतन्त्र के सामने एक भी किसान ने घुटने नहीं टेके और अपना आंदोलन जारी रखा।

दीनबन्धु मित्रा नाम के सज्जन ने १८५९ में इस घटना पर आधारित ‘नीलदर्पण’ नाम का एक नाटक लिखा। कलकत्ता के नॅशनल थिएटर में इसका एक प्रयोग हुआ और भारतीय जनता के सामने किसानों की स्थिति इस माध्यम से प्रस्तुत की गयी। जनता ने इस नि:शस्त्र आंदोलन को भारी समर्थन दिया। ‘नीलदर्पण’ नाम के इस नाटक का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया गया और इसके द्वारा अँग्रेज़ों को उन्हीं के देशबन्धुओं के अत्याचार ज्ञात हो गये।

इन सब बातों का परिणाम अँग्रेज़ सरकार पर कुछ इस तरह हुआ कि १८६० में उन्हें ‘इंडिगो कमिशन’ की नियुक्ति करनी ही पड़ी और किसानों के इस आंदोलन को का़फी हद तक सफलता मिली।

१८६० के बाद के समय में भारत में तेज़ी से सुधार की प्रक्रिया होने लगी थी। मुख्य रूप से बड़े पैमाने पर ‘जनजागृति’ होने लगी थी। भारत के जो लोग अब तक अच्छी तरह पढ़ लिख चुके थे, उन्होंने अब अपने देशवासियों को शिक्षा देने का कार्य शुरू कर दिया। इनमें अग्रसर थे डॉ.गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक। अपने ज्ञान का लाभ देशवासी भाइयों को मिले और साथ ही अँग्रेज़ों द्वारा अपनाया गया दबावतन्त्र, भारतीय जनता पर किये जा रहे अत्याचार आदि के बारे में जनजागृति हो यही उनका प्रमुख उद्देश्य था।

‘विचार’ और ‘उन विचारों के अनुसार कृति’ ये दो प्रभावी शस्त्र इन देशभक्तों के हाथ में थे। यह विचार था, भारतभूमि को दास्यता से मुक्त करने का और उस दिशा में उठाये गये कदम यह थी उनकी कृति।
९ मई १८६६ में रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में गोपाळ कृष्ण गोखलेजी का जन्म हुआ। १८८४ में एलफिस्टन कॉलेज में से डिग्री प्राप्त करनेवाले कुछ गिने चुने भारतीयों में से वे एक थे। शस्त्र-अस्त्र के बिना जंग लड़नी है यानी भारतीय समाज में वैचारिक क्रान्ति करनी है और साथ ही अँग्रेज़ों की उस समय की राज्यपद्धति में सुधार करना है और इसकी सहायता से भारत को अँग्रेज़मुक्त करना है यह गोपाळ कृष्ण गोखलेजी की विचारपद्धति थी और इसी दृष्टि से वे क़दम उठा रहे थे। डेक्कन एज्युकेशन सोसायटी से गोखलेजी जुड़े हुए थे और इंडियन नॅशनल काँग्रेस के ज्येष्ठ सदस्यों में से वे एक थे। आगे चलकर अपने कार्य का स्वरूप अधिक व्यापक बनाते हुए उन्होंने ‘भारत सेवक समाज’ की स्थापना की।

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