क्रान्तिगाथा-५२

अंदमान के सेल्युलर जेल में सावरकरजी ने प्रवेश किया और तब से ही ब्रिटिश सरकार के ज़ुल्मों का उन्हें सामना करना पडा। इस कारावास के दौरान कारागार में उन्हें विभिन्न प्रकार के काम करने पडे। शारीरिक श्रमों के साथ साथ उन्हें कारागार में कई तकलीफों का सामना करना पडा।

कोलू चलाकर तेल निकालना, रस्सी आदि बनाने के लिए नारियल के छिलकों को कूटना, लकडियाँ काँटना जैसे कष्टप्रद कामों के साथ उन्हें बेडियों में जकडकर छत से टाँग भी दिया जाता था। इस वेदनामयी माहौल में भी सावरकरजी का प्रखर देशप्रेम और देशभक्ति पहले जैसे ही तेजस्वी रही और जिस कवित्व ने उनका स्कूली दिनों से साथ निभाया था, वहीं कवित्व अब यहाँ पर इस यातनाभरे माहौल में मददगार साबित हुआ।

अंदमान के जेल में किसी भी साधन की उपलब्धि के बिना ही सावरकरजी ने केवल बबूल के काँटों से/पथ्थर के टुकडों से, ऐसे वहाँ पर उपलब्ध साधनों की सहायता से जेल की दिवारों पर कविताएँ लिखी। जिससे एक बड़े काव्य का जन्म हुआ।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़ दोनों सावरकर भाईयों को मई १९२१ में ब्रिटिश सरकार द्वारा अंदमान से भारत में वापस लाया गया। भारत में लाने के बाद सावरकरजी को ब्रिटिश सरकारने पहले अलिपूर, उसके बाद रत्नागिरी और अंतत: येरवडा जेल में रखा और आखिर जनवरी १९२४ में उनकी मुक्तता की गयी।

और अँग्रेज़ सरकारने उन पर ऐसे कड़े निर्बंध भी लगाये की इससे आगे देश के स्वतन्त्रता आंदोलन में उनका किसी भी तरह का सहभाग नहीं होना चाहिये और वे यहाँ से आगे रत्नागिरी में ही वास्तव्य करे।

सावरकरजीने रत्नागिरी में रहते हुए समाज के निम्नस्तर के लोगों के लिए कार्य करना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने कई समाज सुधार के काम किये। ‘पतित पावन मंदिर’ की स्थापना की गयी।

विनायक दामोदर सावरकर एक प्रखर देशभक्त, समाजसुधारक और एक प्रतिभाशाली कवी एवं लेखक थे। उनके द्वारा निर्मित साहित्यकृतियों को देखने के बाद हमें इस बात की जानकारी प्राप्त होती है। उन्होंने केवल गद्य (प्रोज) रचना ही नहीं की, बल्कि पद्य रचनाएँ (कविताएँ) भी की। साथ ही उन्होंने कई नाटक भी लिखे। कमला, गोमांतक, सप्तर्षी जैसी बड़ी काव्य रचनाओं के साथ उन्होंने कई छोटी कविताएँ भी लिखी। साथ ही संगीत संन्यस्त खड्ग, संगीत उ:शाप जैसे नाटकों की भी रचना की। ‘माझी जन्मठेप’ यह उनका आत्मचरित्र (ऑटोबायॉग्राफी) तो मशहूर ही है।

भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयासों का फलित यानी कि भारतभूमी की स्वतंत्रता की घटना को वे स्वयं देख सके।
स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद भी उनका कार्य जारी रहा। सन १९६६ में प्रायोपवेशन का निश्‍चय करके और उस पर अमल करके २६ फरवरी १९६६ को उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।

१९१४ में विश्‍व में प्रथम विश्‍वयुद्ध (फर्स्ट वर्ल्ड वॉर) शुरू हो चुका था। भारत पर जिस ब्रिटन या ब्रिटिश सरकार की सत्ता थी, वह ब्रिटन भी इस प्रथम विश्‍वयुद्ध में शामील हुआ था। अब पूरे विश्‍व में विश्‍वयुद्ध की गतिविधियाँ जोरों पर थी। ब्रिटिशों के अधिकार में होने के कारण भारत पर भी इस विश्‍वयुद्ध का प्रभाव हुआ।

ब्रिटिश सरकार की भारतपर सत्ता होने के कारण लाखों भारतीय सैनिक इस युद्ध में ब्रिटन के पक्ष में से लडे। ‘य प्रेस’ इस स्थान पर हुई लड़ाई के दौरान भारतीय सैनिकों ने महत्त्वपूर्ण मोरचा सँभाला। साथ ही अन्य स्थानों पर हुई लडाई के दौरान भारतीय सैनिकों को ब्रिटिशों के पक्ष में से लडना पडा। लेकिन इसमें भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान पहॅुंचा। इस विश्‍वयुद्ध ने भारत की आर्थिक स्थिति को तंगी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।

एक स्टॅटिस्टीक्स के अनुसार इस युद्ध में कुल ८ लाख भारतीय सैनिक ब्रिटिशों के पक्ष में से लडे। इनमें से ४७-४८ हजार के आसपास भारतीय सैनिक मारे गये और ६५ हजार के आसपास सैनिक घायल हो गये। इस प्रकार इस प्रथम विश्‍वयुद्ध में भारत को बड़े पैमाने पर मनुष्यहानी का सामना करना पडा।

लेकिन इस विश्‍वयुद्ध का भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति की दृष्टी से कुछ खास फायदा नहीं हुआ।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे अग्रणी व्यक्तित्वों के मन में अब भी ‘स्व-राज्य’की संकल्पना जड़ पकडे हुई ही थी। भारतीयों का ही शासन या राज भारत पर होना चाहिए, यह इच्छा अब जोर पकड रही थी और इसी में से एक आंदोलन का जन्म हुआ ।

‘होमरुल लीग’ अथवा ‘इंडियन होमरुल लीग’ इस नाम से यह आंदोलन विख्यात हुआ। होमरुल यानी भारतीयों का ही अपने देश पर रहनेवाला शासन। संक्षेप में स्व-राज्य और स्वतंत्रता का ही एक आविष्कार।

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