वैभवलक्ष्मी का व्रत – १

मैं जब परेल के शिरोडकर स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब नरे पार्क मैदान के पास एक चौदह-पंद्रह साल का उत्तर भारतीय लड़का चने की टोकरी लेकर, दर असल उस टोकरी को गले में डालकर रिसेस (मध्यन्तर) के समय खड़ा रहता था। कोई भी उसे उसके ‘रामनिवास` इस नाम से नहीं बुलाता था। उसे सभी ‘कालूभैय्या` इस नाम से बुलाते थे। उसका स्वभाव कुछ मज़ाकियाँ एवं मिलनसार था। स्कूल के कई बच्चों को वह नाम से जानता था। मॅट्रिक के बाद स्कूल ख़त्म हो गया और हम कॉलेज जाने लगे। आश्चर्य की बात यह थी कि वह हर रोज़ शाम छह बजे वहाँ पर भी नुक्कड़ पर बैठता था। धीरे धीरे चना-सींग के साथ साथ कुरमुरा, सूखा भेल बेचते हुए वह बाम्बू की गिंड़ी पर बड़ी टोकरी रखकर घूमकर भेल बेचनेवाला बन गया। मेडिकल कॉलेज में जाने के बाद मेरा उसके साथ संपर्क नहीं रहा। लेकिन आगे चलकर परेल व्हिलेज में प्रॅक्टीस शुरू करने के बाद, पहले ही महिने में वह अपने पिताजी को लेकर कन्सल्टींग के लिए आ गया। पहले की अपेक्षा उसके कपड़े बहुत ही सुव्यवस्थित लग रहे थे और उसका पूरा रहन-सहन ही आर्थिक दृष्टि से अच्छा लग रहा था। इसके बाद आगे के चौदह साल वह अपने पिताजी को लेकर हर महिने आता था। उसके पिताजी को डायबिटीस और ब्लडप्रेशर की तकलीफ़ थी। सन १९९८ में परेल स्थित बिल्डींग गिरने की हालत में आ जाने के कारण उस बिल्डींग को गिराना तय किया जाने के बाद, मैंने दादर में एक और कन्सल्टींग शुरू कर दी। रामनिवास को इस बात कापता चल जाते ही वह मेरे घर भेल आदि की सारी सामग्री लेकर आ गया और अपने हाथों से उसने हमें प्यार से भेल, पानीपुरी आदि चाट खिलाये। मैंने उससे कहा, “अरे, मैं केवल परेल छोड़कर जा रहा हूँ, तुम दादर आकर मुझसे या दादा से मिल सकते हो।” तब उसकी आँखों में पानी आ गया और उसने कहा, “डॉक्टरसाहब, आप परेल छोड रहे हैं इसलिए नहीं, लेकिन मेरे पिताजी पिछले महिने में ही गाँव में, उम्र के ७८वें साल में परलोक सिधार गये और उनकी ज़िंदगी के बीमारी के आख़िरी १४ साल आपके मार्गदर्शन के कारण बिना किसी तकलीफ़ के गुज़र गये, इसलिए कृतज्ञता के साथ मैं आप को यह खिलाने आया हूँ और इसी लिए पिताजी के गुज़र जाने की बात पहले नहीं बतायी।” फिर सहज ही सहानुभूतिवश आगे बातें होती रहीं और बातों बातों में उसके ४६ सालों के जीवन की सफल कहानी के बारे में पता चला।

उसके पिताजी को सात बेटियेोंं के बाद यह बेटा हुआ था। गाँव में उसके घर में बहुत ही ग़रीबी के हालात थे, एक वक़्त का खाना मिलना भी मुश्किल था। मुंबई में सभी को सहारा मिल जाता है, यह सुनकर रामनिवास उम्र के १४वें साल टिकट के लिए ज़रूरी पैसों के अलावा सिर्फ़ २५ रुपये लेकर १९६६ में मुंबई आ गया। मुंबई में उसके रिश्तेदार तो क्या, उसकी पहचान तक का भी कोई नहीं था। मुंबई आ जाते ही स्टेशन के बाहर उसे उसके गाँव की भाषा बोलने वाला एक चना बेचने वाला मिल गया। उससे पूछकर इसने एक टोकरी चार रुपये में खरीद ली और दस रुपये के चने, सींग खरीद लिये और पहले ही दिन वह बेकार से कमानेवाला बन गया। पहले १५-२० दिनों तक वह फूटपाथ पर सोकर बॉम्बे सेन्ट्रल स्टेशन के आसपास चना, सींग बेचने का काम करता था। एक दिन वहीं पर उसकी पहचान अमरूद बेचनेवाली एक मराठी महिला से हुई और उसके कहने पर वह परेल में आ गया; क्योंकि हमारे स्कूल के आसपास अन्य पाच-छह स्कूल थे। वहाँ पर चना-सींग बेचते बेचते, अपने खर्चे को बहुत ही कम रखकर वह अपने पिताजी को भी पैसे भेजता रहा और यहाँ पर अपनी बचत भी करता रहा। चार-पाच सालों में ही वह चने बेचने वाले से, घूमते हुए भेल बेचने वाला बन गया और उसकी आमदनी भी बढ़ गयी। लेकिन इस बढ़ती आमदनी से उद्दंड न बनते हुए उसने बचत करना जारी रखा और एक दिन अन्य लोगों के साथ हिस्सेदारी में एक कमरे में सोने के लिए जगह किराये पर लेकर उसने सब्ज़ी की एक छोटीसी दुकान खोली। उसकी सहायता करने उसके पिताजी, माँ और उसकी युवा पत्नी भी आ गयी। ये सभी लोग धारावी में झोपड़े में रहने लगे। धीरे धीरे सभी घरवालों की सहायता से सब्ज़ी की दुकान के साथ साथ पास में ही स्कूली बच्चों की ज़रूरी चीज़ों की भी एक दुकान खोली और एक आईस्क्रीम की गाड़ी भी शुरू की। आगे चलकर आमदनी बढ़ जाते ही जोगेश्वरी की एक चाल में उसने एक कमरा किराये पर ले लिया और वहीं पर अपनी गृहस्थी को स्थिर किया और बच्चों को भी अच्छे स्कूल में दाखिल किया। गाँव में जहाँ केवल एक झोपड़े के सिवाय और कुछ भी नहीं था, वहाँ पर पाच कमरों का सिमेंट-काँक्रीट का घर बनाया और मुंबई में भी उसका काम बढ़ता ही चला गया। वह स्वाभिमान से एक-एक बात बता रहा था और मेरे मन में कौतुक उमड़ रहा था। किसी को भी धोखा न देते हुए, बुरे काम न करते हुए भी कितना बड़ा सफ़र तय किया जा सकता है, इसका यह सुंदर उदाहरण था।

कुछ वर्ष पहले जब मेरे पिताजी गुज़र गये, उस समय वह मुझसे मिलने आया था। उसके पास अब तीन दुकानें थीं और दोनों बेटों के लिए एक-एक अच्छा फ्लॅट था। बड़ा बेटा मध्यप्रदेश में सरकारी अफ़सर था, वहीं छोटा बेटा रेडीमेड कपड़ों का बिझनेस कर रहा था। उसके दोनों बेटों ने स्नातकोत्तर शिक्षा (पोस्ट ग्रॅज्युएशेन) पूरी की थी।

सच कहता हूँ मित्रों, यह नसीब की कहानी नहीं है। यह है, परिश्रमों के सम्मान के व्रत की कहानी। यदि ऐसे लोगों का विद्वेष अथवा निंदा करने के बजाय, परिश्रम और बचत की अहमियत को अच्छी तरह से समझ लिया जाये, तो वह बहुत अच्छा होगा। खुद के आलस्य और अक्षमता को छिपाने के लिए, ‘हम पैसों के पीछे नहीं है` ऐसा कहकर नौकरी में आठ घंटों तक काम करने के बाद समय व्यर्थ गँवानेवालों को इस बारे में अवश्य सोचना चाहिए। उसी प्रकार से, अपनी क्षमता के अनुसार छोटे-बड़े उद्योग करने के बजाय मूर्खतापूर्वक खयाली पुलाव पकाकर अपनी क्षमता से बाहर रहनेवाली पूँजी के उद्योग करके सारी ज़िंदगी क़र्ज़ में गुज़ारने वाले लोगों को भी यह कहानी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए।
क्योंकि मित्रों, आप लोगों ने एक कहावत तो ज़रूर सुनी होगी कि ‘सभी दिखावे किये जा सकते हैं, लेकिन मर चुके व्यक्ति के जीवित होने का और धनहीन के पास पैसे होने का दिखावा नहीं किया जा सकता।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

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