पटना

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भारत के इतिहास में कईं बार ‘पाटलिपुत्र’ का उल्लेख मिलता है। हमारे प्राचीन भारतवर्ष में पाटलिपुत्र नाम का एक सम्पन्न नगर था। पाटलिपुत्र नगर का उल्लेख भारत का एक महत्त्वपूर्ण शहर इस तरह से किया जाता था। प्राचीन समय में भारत की कीर्ति एवं वैभव में चार चॉंद लगानेवाला शहर इस तरह से पाटलिपुत्र की ख्याति थी। यह पाटलिपुत्र नगर अर्थात् आज का पटना – बिहार की राजधानी।

विभिन्न कालखण्डों में पटना यह शहर पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, कुसुमपुर, पुष्पपुर, बंकिपुर, पाटलिबोध्र, अझिमाबाद इन नामों के द्वारा जाना जाता था।

इस शहर के बारे में एक किंवदन्ती यह भी है कि पुत्रक नामक मनुष्य का पाटली नामक राजकन्या के साथ विवाह हुआ और इन दोनों के नामसंक्षेप के कारण इस नगरी का नाम ‘पाटलिपुत्र’ रखा गया।
यहॉं पर स्थित पाटनदेवी नाम की देवता के कारण इस शहर को पटना कहा जाने लगा। दक्ष के यज्ञ में सतीजी (पार्वतीजी) ने आत्मसमर्पण किया और शिवजी उनके शरीर को लेकर जब वहॉं से निकले, तब सतीजी का पट (वस्त्र) यहॉं पर गिर गया, जिसकी स्मृति में यहॉं पाटनदेवी की स्थापना हुई।

इस शहर का अस्तित्व बहुत प्राचीन समय से है, ऐसा माना जाता है। ‘पत्तन’ इस संस्कृत शब्द से ‘पटना’ यह शब्द बना है, ऐसी कुछ लोगों की राय है। ‘पत्तन’ शब्द का अर्थ है, बन्दरगाह। नदियों के संगमस्थल पर बसा होने के कारण शायद इस स्थान का उपयोग बन्दरगाह के तौर पर किया जाता होगा।

इसवी पूर्व ४९० में मगध के राजा अजातशत्रु साम्राज्यविस्तार एवं राज्यरक्षा की दृष्टि से अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र ले आए। गंगा के किनारे पर इस राजधानी का निर्माण करने के कार्य में सुनीध और वस्सकर ये उसके दो मन्त्री कार्यरत थे। जब इस नगरी का निर्माण हो रहा था, तब गौतम बुद्ध यहॉं से गुजर रहे थें। उस समय उन्होंने कहा था, ‘‘यह नगर प्रशासन एवं व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र बनेगा; लेकिन जल, अग्नि एवं अन्तर्गत कलह इनके कारण इस नगर का नाश होने की सम्भावना है।’’

अजातशत्रु के बाद उसके पोते उदयाश्‍व या उदायिभद्र का इस नगर पर शासन था। उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार तो किया ही, साथ ही इस नगरी का भी विस्तार किया। उदयाश्‍व के बाद इस नगरी पर शिशुनाग एवं नन्द वंश के राजाओं ने शासन किया।

उनके बाद सत्ता की डोर सँभालनेवाले चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस नगरी को सुन्दर बनाया। उस समय के ग्रीक इतिहासकार मेगॅस्थेनिस ने इस नगरी का वर्णन किया है। इस शहर की अधिकतर रचनाओं के निर्माण में लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। चन्द्रगुप्त का विशाल एवं कलात्मक राजमहल भी लकड़ी के द्वारा ही निर्मित था। २ मील की चौड़ाई का यह शहर ९ मीलों तक फ़ैला हुआ था। नगर के चारों ओर लकड़ी से बनी चहारदीवारी थी, जिसमें ६४ दरवाजें तथा ५७० बु़र्ज थें। नगर के चारों ओर ३० हाथ की गहराई का खंदक था, जिसमें शोण नदी के जल को छोड़ा गया था। जलनिस्सारण की व्यवस्था, यह इस नगरी की एक और विशेषता थी। इस व्यवस्था के कारण सारे शहर के इस्तेमाल किये गए जल को शहर से बाहर छोड़ दिया जाता था। यह भारत का उस समय का एक बहुत बड़ा एवं सम्पन्न शहर था।

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चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते सम्राट अशोक ने अन्दाजन् इसवी पूर्व २७३ में इस नगर की लकड़ी की रचनाओं की जगह पत्थर की रचनाओं का निर्माण किया। उसके कईं वर्ष बाद, भारत आये हुए चीन के यात्री फा-एन पत्थर से बनीं इन रचनाओं को देखकर अचम्भित हो गये।

युरोप के इतिहास में जो महत्त्वपूर्ण स्थान रोम का था, वही स्थान भारत इतिहास में पाटलिपुत्र का था। इसवी पूर्व ५वी सदी से लेकर इसवी ६ठी सदी तक अर्थात् इतने लम्बे समय तक यह शहर राजधानी का शहर बना रहा। यहॉं के प्रशासक राजाओं ने इस नगर के वैभव को बढ़ाने के साथ-साथ भारत एवं बाहरी प्रदेशों में भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया। यह शहर मशहूर था, वह यहॉं की शिक्षाव्यवस्था और यहॉं के विद्वानों के लिए। राजशेखर नाम के विद्वान ने अपने ‘काव्यमीमांसा’ नामक ग्रन्थ में लिखा है कि वर्ष, उपवर्ष, पाणिनि, व्याडि, वररुचि, पिंगल, पतंजलि इन विद्वानों ने पाटलिपुत्र में परीक्षा दी थीं और उसके बाद ही उनकी गणना विद्वज्जनों में होने लगी।

यहॉं के महाविद्यालयों में आयुर्वेद एवं शल्यविद्या (सर्जरी) इनकी शिक्षा दी जाती थी। यहॉं के चिकित्सकों को अरबस्तान में बुलाया जाता था और अरबस्तान के चिकित्सक यहॉं शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थें। माणिक्य और धन्वन्तरी नामक चिकित्सकों को चरक-सुश्रुत आदि ग्रन्थों का अनुवाद करने के लिए अरबस्तान बुलाए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।

विद्वज्जनों की इस नगरी में गणितज्ञ और खगोलशास्त्रज्ञ आर्यभट्ट, राजनीति और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ चाणक्य, संस्कृत भाषा के व्याकरणाचार्य पाणिनि भी निवास कर चुके हैं। मौर्य काल से यहॉं पर राजनीति और गुप्तचरविभाग का प्रशिक्षण दिया जाता था। सम्राट अशोक के शासनकाल में यह नगरी बौद्ध तत्त्वज्ञान की शिक्षा का केन्द्र बनी थी।

सम्राट अशोक के पश्चात् इस नगरी पर ग्रीक-यवन इन विदेशियों ने आक्रमण किएँ। उनके बाद कलिंगसम्राट खारवेल ने जब इस नगरी पर धावा बोल दिया, तब मौर्य वंश का आखरी राजा राज कर रहा था। आगे चलकर इसी राजा के सेनापति ने इस नगर पर राज किया। उसके बाद फिर एक बार आक्रमणों के कारण यह नगरी जर्जर हुई।

इस नगर को फिर से एक बार वैभवशाली बनाने का काम भविष्य में वहॉं पर राज करनेवाले गुप्त साम्राज्य के राजाओं ने किया। लेकिन गुप्त साम्राज्य के र्‍हास के साथ-साथ इस नगरी की शिक्षाकेन्द्र के रूप में होनेवाली पहचान भी मिट गई।

गुप्त साम्राज्य के र्‍हास के बाद फिर से एक बार इस नगर पर विदेशियों की सत्ता स्थापित हुई। लेकिन शेरशहा सूरी ने १६वी सदी के मध्य में इस नगरी को सुस्थिति में लाने का प्रयत्न किया।

उसके पश्चात् पटना पर बंगाल के नवाबों की सत्ता स्थापित हुई। इसी १७वी सदी के दौरान पटना यह आन्तरराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बना।

इसवी १६२० में अंग्रे़जों ने सिल्क और कपड़े की खरीददारी और संग्रह करने के लिए पटना में फैक्टरी खोली। इसवी १७६४ में हुई बकसर की लड़ाई के कारण नवाबों की पटना पर रहनेवाली पकड़ ढिली पड़ गयी और पटना पर अंग्रे़जों का राज स्थापित होने का मार्ग खुल गया। अंग्रे़जों ने पटना को उनके व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र बनाया। इसवी १९१२ में बंगाल प्रेसिडेन्सी का विभाजन होकर पटना यह शहर बिहार और ओरिसा इस संयुक्त प्रान्त की राजधानी बन गया। अंग्रे़जों ने पटना में कईं शिक्षासंस्थानों की शुरुआत की। इसवी १९३५ में ओरिसा को बिहार से अलग कर दिया गया और अब पटना यह सिर्फ़ बिहार की राजधानी के तौर पर पहचाना जाने लगा। औरंगजेब ने कुछ समय के लिए इस शहर को उसके पोते का नाम भी दिया था, लेकिन वह नाम अधिक समय तक प्रचलित नहीं रहा।

भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम में इस शहर की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गान्धीजी का चम्पारण्य का सत्याग्रह और इसवी १९४२ का ‘चलेजाव’ आन्दोलन इनमें भी इस शहर का योगदान रहा है। इस शहर ने भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम में लड़नेवाले कईं सेनानी दिये हैं।

पटना जब अंग्रे़जों के कब़्जे में आया, तब उन्होंने वहॉं पर बंकिपुर इस नये उपनिवेश की स्थापना की। उन दिनों बिहार बार-बार सूखे की चपेट में आता रहता था। अपनी सेना को अनाज की आपूर्ति होती रहे, इस उद्देश्य से जॉन गर्स्टिन इस अंग्रे़ज की प्रेरणा से पटना में एक गोलघर (गोदाम) का निर्माण किया गया। इस गोलघर की ऊँचाई ९६ फीट है और इसकी सतह की ओर दीवारों की चौड़ाई १३ फीट है। इसके दरवाजे भीतर की ओर खुलते हैं, जिसके कारण एक बार इसे ऊपर से अनाज डालकर भर देने के बाद दरवाजों का खुलना मुमक़िन नहीं है। लेकिन इसकी क्षमता १,४०,००० टन अनाज का संग्रह करने की होने के बावजूद भी इस गोलघर में कभी भी अनाज का संग्रह किया ही नहीं गया, ऐसा भी कहा जाता है।

पटना के पूर्व की ओर ‘आगमकुआँ’ नाम का एक कुआँ है। इस कुएँ का निर्माण मौर्यकाल में किया गया, ऐसा कहा जाता है। इस कुएँ की एक विशेषता यह भी है कि वह अथाह है।

पटना के निकट बसे कुम्रहर में किये गए उत्खनन में पुरानी पाटलिपुत्र नगरी के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहॉं के उत्खनन में इसवीपूर्व ४००-३०० के बीच का, ८० वालुकापाषाणों के द्वारा निर्मित मौर्यकालीन सभागृह एवं एक आरोग्यविहार पाये गए हैं। गुप्त काल में निर्मित यह आरोग्यविहार और मौर्यकालीन ८० स्तम्भों का सभागृह यह प्राचीन पाटलिपुत्र नगरी के गवाह हैं।

श्रीगुरु गोविन्दसिंगजी महाराज के स्मरण के बिना पटना का वर्णन अधूरा है। उनका जन्म पटना में २२ दिसम्बर १६६६ को हुआ। गुरु गोविन्दसिंगजी महाराज सिखों के दसवे गुरु थें। धर्मरक्षा के लिए उनके सभी पुत्र शहीद हुएँ। उन्होंने ‘जपूजी साहिब’ एवं अन्य रचनाएँ की है। केश, कंघी, कच्छा, कडा और कृपाण इन पॉंच ‘क’कारों की दीक्षा उन्होंने सिख धर्मियों को प्रदान की। पटना में ‘तख्त हरमंदिर’ यह सिखों का पवित्र स्थान है।

आज भी पटना यह भारत का पूर्वीय प्रान्त का एक प्रमुख व्यापारी केन्द्र है। प्राचीन पाटलिपुत्र से लेकर आज के पटना तक के इस लम्बेचौड़े सफ़र में कईं बातों का उदय और अस्त हुआ, लेकिन इस शहर से जुड़ी हुई एक बात शुरू से आज तक कायम है और वह है, गंगानदी।

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