क्रान्तिगाथा-१७

१८५७  के जून के महीने का आखरी सप्ताह कानपुर की तरह लखनौ के लिए भी स्वतंत्रता के सूर्योदय को अपने साथ ले आया। चिन्हत् की हार के बाद लखनौ के अँग्रेज़ों ने अपनी रेसिडन्सी की पनाह ले ली और लखनौ में नवाब का बेटा, जो इस समय बहुत ही छोटा था, उसे राजगद्दी पर बिठाकर उस नवाब की पत्नी बेगम हज़रत महल का राज शुरू हो गया।

लखनौ के अँग्रेज़ अब अपनी रेसिडन्सी में और उनके आसपास चारों तऱफ़ स़िर्फ़ भारतीय ऐसी स्थिती बन गयी। मग़र कानपुर और लखनौ में हुआ दास्यमुक्तता का यह सूर्योदय अधिक समय तक नहीं रहा; क्योंकि वहाँ पर परास्त हुए अँग्रेज़ उनकी सहायता के लिए आ रही अपनी फ़ौज की राह देख रहे थे। जुलाई का महीना इन दोनों इलाक़ों के लिए तू़फ़ानी साबित होनेवाला था।

कानपुर के अँग्रेज़ मुक्त होते समय ही जून के अन्त में और जुलाई के प्रारम्भ में अन्य कुछ घटनाओं से कानपुर की क्रान्ति के इतिहास में रक्तरंजित घटनाओं के कुछ और पन्नें जुड़ गये थे। अब हेन्री हॅवलॉक नाम का एक अँग्रेज़ जनरल तेज़ी से अपनी सेना के साथ कानपुर और लखनौ की ओर रवाना हो गया। उसका मक़सद एक ही था, भारतीयों के कब्ज़े में जा चुके इन दोनों इलाक़ों को पुन: जीतना। आगे बढ़ रहे इस हॅवलॉक से आ मिला, बनारस में भारतीयों पर अमानुष ज़ुल्म करनेवाला जनरल जेम्स नील और मेजर रेनॉड। अब अँग्रेज़ फ़ौज की संख्या और ताकद का़फ़ी बढ चुकी थी।

यहाँ पर कानपुर आज़ाद तो हो चुका था, मग़र अब इस आज़ादी को अबाधित रखने के लिए नानासाहब पेशवा ने उनके भाई बाळाराव को कानपुर की ओर कूच कर रही अँग्रेज़ फ़ौज को रोकने के लिए सेना के साथ भेज दिया।

इससे पहले ही १२ जुलाई को नानासाहब पेशवा के एक सेनादल और जनरल हॅवलॉक की फ़ौज के बीच फ़तेहपुर में जंग छिड़ चुकी थी और उसमें भारतीय सेना को परास्त करके अँग्रेज़ों ने फ़तेहपुर जीत लिया था और अब अँग्रेज़ तेज़ी से कानपुर की ओर बढ़ रहे थे।

रास्ते में ‘अओंग’ नाम के गाँव के बाहर अँग्रेज़ फ़ौज और बाळाराव की फ़ौज के बीच भिड़त हो गयी; मग़र दुर्भाग्यवश अँग्रेज़ों का सेनाबल बढ़ चुका होने के कारण उनसे भारतीयों को हारना पड़ा।

एक के बाद एक करके इलाक़ों को जीत रहे अँग्रेज़ों का खूँख़ारपन भी अब बढ़ता जा रहा था। कानपुर जा रहे अँग्रेज़ों ने रास्तें में आनेवाले गाँवों के निवासियों पर अमानुष ज़ुल्म ढाये।

अँग्रेज़ तेजी से कानपुर की ओर बढ रहे है, यह खबर और साथ ही अँग्रेज़ों द्वारा ढाये जा रहे क़हर की ख़बरें यहाँ कानपुर में नानासाहब पेशवा और तात्या टोपे तक पहुँच ही रही थीं। अब कानपुर की सुरक्षा करने का व़क़्त क़रीब आ रहा था।

आख़िर १६ जुलाई १८५७ को अँग्रेज़ फ़ौज कानपुर के का़फ़ी क़रीब आ चुकी और जंग छिड़ गयी। मग़र फ़िर एक बार दुर्भाग्यवश भारतीयों को हार का सामना करना पड़ा और कानपुर पर अँग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि अँग्रेज़ कानपुर जीत चुके थे, मग़र कानपुर में अब एक भी अँग्रेज़ नहीं था और इसके लिए कानपुरवासियों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए अँग्रेज़ों ने उनपर अत्याचार करना शुरू कर दिया।

कानपुर का राज जनरल नील के हाथों सौंप दिया गया और फ़िर उसने अपनी राक्षसी वृत्ति का प्रदर्शन किया। पहले ही उसने कई ज़ुल्म ढाये थे। अब उसने कई बेगुनाहों को फाँसी पर लटका दिया, कइयों को गोलियों से छलनी कर दिया तो कइयों को तोपों के मुँह पर जीवित बाँधकर तोपें चलायी गयीं। एक जगह तो सारा का सारा गाँव अँग्रेज़ों के खिला़फ़ लड़ने खड़ा हो गया, तब अँग्रेज़ सेना ने उस गाँव को चारों तऱफ़ से घेर लिया और गाँववालों के साथ सारा का सारा गाँव जला दिया। उस आग में से अपनी जान बचाने के लिए बाहर निकलनेवालों के शरीर अँग्रेज़ों ने गोलियों से छलनी कर दिये।

सब जगह युध्द की ज्वालाएँ भड़क रही थीं। अब जनरल हॅवलॉक ने बिठुर की ओर कूच किया। क्योंकि अँग्रेज़ों का मानना यह था कि क्रान्ति के इस बीज का जन्म इसी बिठुर की हवेली में रहनेवालों के मन और दिमाग़ में ही हुआ है। इसी वजह से किसी भी क़िमत पर वे बिठुर पर कब्ज़ा कर लेना चाहते थे। आख़िर १९ जुलाई को अँग्रेज़ों को इस काम में क़ामयाबी मिल गयी और बिठुर वहाँ के राजमहल, हाथी, ऊँट, कुछ शस्त्र-अस्त्र आदि अन्य बातों के साथ अँग्रेज़ों के हाथों में चला गया। अँग्रेज़ों ने बिठुर के राजमहल को फ़ूक डाला। अँग्रेज़ों की नज़र यहाँ पर रहनेवाले क्रान्ति के दो अग्रणियों को ढूँढ़ रही थी, लेकिन वे तो कब के वहाँ से निकल चुके थे।

लेकिन वे दोनों थे कहाँ? कोई नहीं जानता था। नानासाहब पेशवा कब, कहाँ चले गये यह कोई नहीं जानता था। क्योंकि अँग्रेज़ क्या, उनकी प्रजा को भी वे इसके बाद कभी दिखायीं नहीं दिये। अँग्रेज़ों ने उन्हें ढूँढ़ने की हर संभव कोशिश की, लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा। १८८८ तक नानासाहब पेशवा के दिखायी देने की, पकड़े जाने की ख़बरें बीच बीच में आती रहीं, लेकिन वे अ़फ़वाहें ही साबित हुईं। १८५७ की क्रान्ति के प्रधान संचालक रहनेवाले नानासाहब पेशवा को तो अँग्रेज़ कभी पकड़ नहीं सके; मग़र फ़िर उनके सेनापति तात्या टोपे का क्या हुआ?

Leave a Reply

Your email address will not be published.