क्रान्तिगाथा-७४

विदेशियों की गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ी अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के लिए उसके अनगिनत सपूत दिनरात तड़प रहे थे, दिनरात मेहनत कर रहे थे। भारत के किसी कोने के देहात में रहनेवाला कोई भारतीय हो या किसी शहर में रहनेवाला भारतीय, दोनों की परिस्थिति में चाहे कितना भी फर्क क्यों न हो, मग़र फिर भी दोनों के सिर पर एक ही जुनून सवार था, दोनों की मंज़िल एक ही थी – मातृभूमि की दास्यत्व से मुक्ति।

इनमें से कोई पढ़ा लिखा था तो कोई अनपढ़, कोई गरीबी के घाव सह रहा था तो कोई अमीर खानदान में पैदा हुआ था। इनमें से किसी ने हाथ में शस्त्र उठा लिये, किसीने क़लम उठा ली तो किसीने लफ़्ज़ो के ज़रिये (भाषण) अँग्रेज़ों के खिलाफ़ जनजागृति की।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की खासियत यह थी कि इसमें राजा-महाराजा-रानी और शासकों के अधिकारी युद्ध के मैदान में उतरे ही थे, लेकिन साथ ही किसान, मज़दूर से लेकर एक आम भारतीय नागरिक भी अँग्रेज़ों के खिलाफ़ जंग लड़ने के लिए जान की बाज़ी लगा रहा था।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में जूझनेवाले भारतीयों ने महज़ अपने ज्ञान को ही नहीं, बल्कि अपने धन और घरबार को भी आज़ादी के जंग के लिए समर्पित कर दिया था।

किसी खूँख़ार एवं ज़ुलमी अँग्रेज़ अफसर को मौत के घाट उतारनेवाला कोई देशभक्त क्रान्तिकारी अपने इस कार्य के लिए चाहे वज्र के जैसा कठोर एवं अभेद्य क्यों न हो, मग़र फिर भी उसके सीने में एक दयार्द्र दिल था। अपने देशवासियों को भुगतनी पड़ रही यातनाएँ, परेशानियाँ, दुख, जो उन्हें ज़ुलमी अँग्रेज़ी हुकूमत के कारण भुगतने पड़ रहे थे, देखकर इन क्रान्तिकारियों के मन ने अँग्रेज़ों की हुकूमत को उखाड़ फेंकने का ध्यास ले लिया था।

इन क्रान्तिकारियों एवं देशभक्तों में जिस तरह रणगीत लिखनेवाले कवि थे, उसी तरह भावुक मन वाले, तरल भावविश्‍व का निर्माण करनेवाले कवि भी थे।

सारा महाराष्ट्र जिन्हें ‘साहित्यसम्राट’ के रूप में जानता है, वे न.चिं.केळकरजी भी इस स्वतन्त्रतासंग्राम का एक हिस्सा थे।

उनकी साहित्य-वाङ्मय-सेवा के कारण उन्हें ‘साहित्यसम्राट’ यह उपाधि बहाल की गयी थी। न.चिं.केळकर उपाख्य साहित्यसम्राट न.चिं.केळकर का जन्म अगस्त १८७२ में मिरज के मोडनिंब नाम के गाँव में हुआ। १९वे वर्ष डिग्री प्राप्त करके फिर उन्होंने महज़ तीन ही साल में कानून की डिग्री प्राप्त कर ली।

लोकमान्य टिळकजी के संपर्क में आने के बाद टिळकजी के द्वारा शुरू किये गये ‘मराठा’ और ‘केसरी’ इन अखबारों के माध्यम से वे लेखक के रूप में जाने जाने लगे। लोकमान्य टिळकजी की मृत्यु के बाद टिळकजी के तेजस्वी एवं प्रखर देशभक्ति से ओतप्रोत विचारों को जागृत रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य न.चिं.केळकर ने किया।

अँग्रेज़ों के शासनकाल में महज़ १-२ नहीं, बल्कि २५ सालों तक प्रान्तीय सरकार में उनका सहभाग था और इस दौरान छह वर्ष तक वे मेयर भी रहे थे।

तीसरी गोलमेज़ परिषद में भारतीयों का पक्ष रखने गये महात्मा गाँधीजी के साथ न.चिं.केळकर भी थे।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में उनके द्वारा दिये गये इस योगदान के साथ साहित्य क्षेत्र में भी अनेक कथाओं, उपन्यासों, कविताओं, वैचारिक लेखों के रूप में भी उन्होंने योगदान दिया था। उनके द्वारा किया गया उल्लेखनीय कार्य था – लोकमान्य टिळकजी का विस्तृत जीवनचरित्र लिखना।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि ‘स्वराज्य पार्टी’ की स्थापना में उनका महत्त्वपूर्ण सहभाग था।

भारत के आज़ाद होने के दो महीनों के बाद उन्होंने इस दुनिया से अक्तूबर १९४७ में विदा ले ली।

अँग्रेज़ों के द्वारा भारत पर आक्रमण करना और भारत को ग़ुलाम बनाना यह महज़ एक भूभाग पर किया हुआ आक्रमण नहीं था, बल्कि वह भारतीय संस्कृति एवं भारतीयत्व पर किया गया आक्रमण था।

विदेशी कपड़ों और चीज़ों के साथ साथ विदेशी संस्कृति भी भारत में घुसकर आम भारतीयों पर अधिराज्य करना चाहती थी। ऐसे वक़्त तेज़ी से हो रहे इस आक्रमण के खिलाफ़ भारतीय जनता को जागृत करना यह भी उतना ही ज़रूरी था।

यह जनजागृति भी उस समय अनमोल साबित हुई, या ऐसा कह सकते है कि इस प्रकार की जनजागृति यह स्वतन्त्रतासंग्राम का ही एक हिस्सा थी।

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