परमहंस-११४

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

रामकृष्णजी यह कभी नहीं चाहते थे कि उनके शिष्यगण सूखे ज्ञानी – क़िताबी क़ीड़ें बनें। इस कारण – महज़ धार्मिक ग्रंथों के एक के बाद एक पाठ करने की अपेक्षा, उन ग्रन्थों में जो प्रतिपादित किया है उसे जीवन में, अपनी दिनचर्या में उतारने के प्रयास वे करें, ऐसा रामकृष्णजी को लगता था। ईश्‍वरप्राप्ति के किसी भी मार्ग की अपेक्षा, ‘ईश्‍वर से प्रेम करना’ यह सर्वश्रेष्ठ मार्ग होने का प्रतिपादन रामकृष्णजी हमेशा ही करते थे।

‘ईश्‍वरप्राप्ति के लिए प्रयास करते समय, कई कसौटी के प्रसंगों का सामना करना पड़ सकता है, जो कई बार आम इन्सान के लिए बहुत कठिन बात साबित होती है। उससे अच्छा, अपना सारा भार अधिक से अधिक ईश्‍वर पर ही डालें। अहम बात यानी ईशप्राप्ति के लिए प्रयास करते समय ईश्‍वर की अधिक से अधिक शरण में जायें, ईश्‍वर से प्रेम करें; उसी से ‘उस’ की कृपा हमारे जीवन में उतर सकती है और फिर हमारा सारा खयाल ‘उस’ के द्वारा लिया जाकर, हमें कम कष्ट करने पड़ेंगे। सारे विषयों की खान होनेवाले इस जग से मन को हटाना यह इन्सान के लिए आसान नहीं है; केवल ईश्‍वर की कृपा ही यह कर सकती है और उसे पाने के लिए मूलतः वैसी इच्छा मन में होनी चाहिए। जो महज़ सुखोपभोगों में ही मश्गूल होकर रहना चाहता है, उसका मन इस संसार से कभी भी विरक्त नहीं हो पायेगा, ईश्‍वर की ओर नहीं मुड़ सकेगा’ ऐसा वे अनुरोधपूर्वक अपने शिष्यों से कहते थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्ण‘लेकिन ईश्‍वरी ओर मुड़नेवाला भी मन ही होता है और ईश्‍वर से दूर ले जानेवाला भी मन ही होता है। मन यह सफ़ेद कपड़े की तरह होता है। सफ़ेद कपड़े को आप जिस रंग में डुबाओगे, उस रंग को वह कपड़ा अपनायेगा। उसी तरह जिस रंग में आप मन को रंगोगे, उस रंग को मन धारण करेगा। आप यदि श्रद्धावानों की संगत में रहोगे, तो मन सत्त्वगुणी रंग में रंगेगा; वहीं, आप यदि श्रद्धाहीन लोगों की संगत में रहोगे, तो मन में ईश्‍वर से दूर जाने के ही विचार शुरू होंगे।

यदि, ‘मैं इस विश्‍व के निर्माता और सम्राट होनेवाले देवाधिदेव का पुत्र – अंश हूँ, मुझे भला कौन बाँधे रख सकता है’ यह निरन्तर मन से कहते रहोगे, तो आपके मन में इसका एहसास जागृत रहेगा और मन अन्य विषयों की ओर कम दौड़ना चाहेगा। कई गुरु अपने शिष्यों को पाप से दूर रहने की सीख देते हैं; जिसके परिणामस्वरूप शिष्यों का मन पाप का डर धारण कर उन पापों के बारे में ही सोचते रहता है। और तुम जिसके बारे में सोचते रहोगे, वही तुम बन जाओगे, यह तो सत्य है ही। अतः कई बार निरन्तर पाप के बारे में सोचते रहने के कारण उनके हाथों होनेवाले पाप कम होने के बजाय उल्टे बढ़ते हैं।

उसके बजाय, ‘जिसके सामने दुनिया का कोई भी पाप मामूली ही है ऐसे देवाधिदेव की मैं सन्तान हूँ, जिसके साथ मेरा ‘एक-से-एक’ (‘वन-टू-वन’) नाता है। फिर मेरे हाथों पाप होगा भी कैसे, और यदि होने गया भी, तो भी मेरा यह बाप – मेरा ईश्‍वर मुझे उससे रोकने ही वाला है’ ऐसा दृढ़निश्‍चय मन में रखना, ऐसा विचार मन में वृद्धिंगत करना।

और यदि हाथों से पाप हो भी गया, तो भी ईश्‍वर के पास उसे वास्तविक पश्‍चात्तापबुद्धि से क़बूल करके और उसका प्रायश्‍चित्त लेने की तैयारी रखकर, पुनः वैसा घटित न होने देने का वास्तविक निश्‍चय मन में रखकर आगे चलते रहना। ईश्‍वर के पास अनंत क्षमा है, लेकिन वह अपनी ग़लती मान्य होनेवालों के लिए ही।

धीरे धीरे ऐसी स्थिति को पहुँचोगे की ज्ञान-अज्ञान, सद्गुण-दुर्गुण, शुद्धता-अशुद्धता इनके विचारों के जंजाल में उलझने के बजाय, केवल ‘मैं तुम्हें चाहता हूँ’ यह एक ही एहसास मन में टिके रहेगा।

यह संभव होगा, केवल ईश्‍वर के नामस्मरण से, नाम-गुण-लीला-अनुभव संकीर्तन से ही। कलियुग में अन्य किसी मार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग ही श्रेष्ठ है।

लेकिन यह सब घटित होने के लिए मन में ईश्‍वर के मार्ग पर होने की तीव्र इच्छा रहनी चाहिए, अन्यथा इनमें से कुछ भी घटित नहीं हो सकता।’

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