परमहंस-१३५

रामकृष्णजी का वास्तव्य अब कोलकाता की भरी बस्ती में होने के कारण, आनेवाले भक्तों को दक्षिणेश्‍वर की तुलना में यहीं पर अधिक सुविधाजनक साबित हो रहा था और यहाँ पर भक्तों की अधिक ही भीड़ इकट्ठा होने लगी थी।

दरअसल उनके पुराने निष्ठावान् भक्तों में से कइयों का प्रवास संन्यास धारण करने की दिशा में हो रहा था या फिर कई लोग अभी तक छात्रावस्था में थे। कुछ लोग नौकरियाँ कर रहे थे, लेकिन वे कुछ खास कमाऊ नहीं थीं। गृहस्थाश्रमी होकर अच्छाख़ासा कमा रहे हैं ऐसे बहुत ही कम लोग थे। और तो और, कइयों के घरवाले, उनके रामकृष्णजी के यहाँ आने के लिए विरोध करते थे। अतः वे चोरी-छिपे ही आ जाते थे। ऐसी सारीं उपलब्धता-अनुपलब्धताओं के आधार पर उनकी सेवा की ‘टर्न्स’ निश्‍चित की जाती थीं। इससे अलग से सेवक रखने का खर्चा हालाँकि बच गया था, लेकिन इतने लोगों के लिए होनेवाला किमान आवश्यक खर्चा तो था ही।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइस कारण यहाँ का वास्तव्य दरअसल बहुत ही खर्चीला साबित हो रहा था; लेकिन यह यदि अधिक से अधिक भक्तों के लिए सुविधाजनक है, तो रामकृष्णजी यहीं रहें तो अच्छा है, ऐसी इन भक्तों ने आपस में बात करके ठान ली थी।

अब रामकृष्णजी की बीमारी धीरे धीरे बढ़ती ही चली जा रही थी। उनका चेहरा हालाँकि अधिक से अधिक तेजोमय होता जा रहा था, लेकिन शरीर ने अब धीरे धीरे साध देना कम कर दिया था। लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी वे आये हुए भक्तों से मिलने आतुर रहते थे, भक्तों की समस्याओं को सुलझाने का, उन्हें मार्गदर्शन करने का काम वे खुशी से करते थे।

वे महज़ नये भक्तों को ही मार्गदर्शन करते थे ऐसी नहीं, बल्कि पुराने निष्ठावान् भक्तों के मन में होनेवालीं भक्तिविषयक ग़लत धारणाओं को दूर करने का काम भी वे मृदुता से कर देते थे।

उदाहरण के तौर पर, शुरू शुरू में सत्संग में सम्मिलित होते हुए या फिर रामकृष्णजी को भावसमाधि को प्राप्त होते हुए देखकर, आये हुए भक्तों में से किसी की कभीकभार टकटकी लग जाती थी या फिर किसी की आँखों से आँसू बहते हुए दिखायी देते थे। ऐसे प्रायः अष्टभाव जागृत होते समय के कुछ लक्षण (आँखों से आँसू बहना, शरीर को कँपकँपी छूटना आदि) ‘दिखायी दिये’, तो बस्स्, फिर तुरन्त ही ऐसे भक्त को सम्मान की नज़रों से देखा जाता था। ऐसा नहीं था कि ऐसे भक्तों में से सभी लोग सच्चे होते थे। लेकिन कौन सच्चा और कौन झूठा, इसका लेखाजोखा रामकृष्णजी के पास होता ही था। इसलिए ऐसे समय वे अपने इन पुराने भक्तों को समझाकर बताते कि ‘क्यों किसी की भक्ति नापने जाते हो और यदि नापते ही हो, तो कम से कम इस तरह की बाह्य रूलरों को इस्तेमाल तो मत करो। दर्शन के समय किसी की आँखों से आँसू बह रहे हैं, यानी वह श्रेष्ठ भक्त, ऐसा कुछ नहीं है’; अथवा ‘समान दिखनेवालीं दो परिस्थितियों में फ़र्क़ हो सकता है। भक्तिमार्ग में बहुत ही आगे निकल चुके तथा ईश्‍वर के सिवाय अन्य कुछ दिखायी न दे रहे किसी भक्त का, निरंतर ईशचिंतन के कारण आया हुआ भौतिक बातों के प्रति भुलक्कड़पन; और व्यवहारिक-भौतिक बातों में बहुत ही उलझे हुए होने के कारण, कई बातों का ध्यान रखना पड़ने के कारण किसी आम गृहस्थाश्रमी इन्सान को आया हुआ भुलक्कड़पन, इनमें बहुत ही फ़र्क़ है’ यह तारतम्यभाव रामकृष्णजी भक्तों को समझाकर बताते।

इस प्रकार इन पुराने भक्तों के मन की बैठक को रामकृष्णजी ने ठीक तरह से तैयार करा लिया था। इसी कारण, इस बीमारी के उपलक्ष्य में रामकृष्णजी अपने अवतारकार्य को संपन्न करने की दिशा में मार्गक्रमणा कर रहे हैं, इस कटुसत्य को भी ये भक्त ठीक तरह से हजम कर सके थे।

वैसे उनकी यह बीमारी असाध्य होने की चेतावनी भी डॉक्टर ने पहले ही दी थी, लेकिन उनकी पीड़ा कम होने की दृष्टि से ईलाज शुरू थे। लेकिन अब दवाइयों का असर भी कम कम होता जा रहा था। इसलिए डॉक्टर ने उनके लिए आबोहवा में बदलाव लाने का सुझाव दिया और इस भरी शहरी बस्ती में होनेवाले घर से उन्हें स्थलांतरित कर, शहर के बाहर के दूसरे किसी निसर्गसन्निधता में होनेवाले स्थान में रखने की सलाह दी। भक्त लोग पुनः ऐसी जगह की तलाश में जुट गये।

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