परमहंस-१३६

बीमारी पर ईलाज के चलते रामकृष्णजी का जो वास्तव्य श्यामापुकुर में चल रहा था, उससे शिष्यगणों के दिलों में संमिश्र भावनाएँ उमड़ रही थीं।

यहाँ पर, पहले कभी नहीं मिला था इतना रामकृष्णजी का सान्निध्य उन्हें प्राप्त हो रहा था। दर्शन के लिए आये भक्तों को किये जानेवाले मार्गदर्शन के माध्यम से, रामकृष्णजी के उपदेशामृत का लाभ जी भरकर मिल रहा था; कई बार रामकृष्ण को भावसमाधि को प्राप्त होते देखने का सौभाग्य भी शिष्यगणों को प्राप्त हो रहा था।

लेकिन उसीके साथ – ‘रामकृष्णजी की यह बीमारी असाध्य है और इस बीमारी के उपलक्ष्य में, उनका अवतारकार्य संपन्न होने की घड़ी नज़दीक आ रही है’ यह कटुसत्य भी अब शिष्यों के मन में उजागर हुआ था और अब कुछ ही दिनों में रामकृष्णजी का भौतिक देह समय के परदे के पीछे चला जायेगा और फिर उसके बाद हम उन्हें ‘इस तरह’ सगुण साकार रूप में कभी भी देख नहीं पायेंगे, यह सोचकर शिष्यगणों को असीम दुख हो रहा था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन उसमें भी कुछ नये शिष्य, ‘रामकृष्णजी यक़ीनन ही कुछ चमत्कार कर दिखायेंगे और एक न एक दिन इस बीमारी से बाहर निकलेंगे’ ऐसी पगली उम्मेद लगाये बैठे थे। लेकिन उन्हें फिर ये अनुभवी शिष्य धीरे धीरे समझाकर बताते कि ‘ऐसा कुछ भी नहीं है। कोई भी मानव अमर नहीं है और एक बार जब मानवी देह धारण किया, तो फिर मानवी देह के सारे गुणधर्म तथा नियम उन्हें भी लागू होनेवाले हैं और एक ना एक दिन वे अपना अवतारकार्य संपन्न करके चले जाने ही वाले हैं। भक्ति में भावभोलापन यक़ीनन ही होना चाहिए, लेकिन इतनी अतिसादगी भी नहीं होनी चाहिए कि बुद्धि विचार करने की ताक़त ही खो बैठें।’ इस प्रकार पुराने अनुभवी शिष्यों द्वारा हल्के से समझाकर बताये जाने के बाद, अब धीरे धीरे सभी के मन की तैयारी होने लगी थी और हर एक जन दिल पर पत्थर रखकर, इस परिस्थिति में रामकृष्णजी की अधिक से अधिक सेवा कैसे अपने हाथों से हो सकती है, इसके लिए प्रयास कर रहा था।

यह श्यामापुकुरस्थित निवासस्थान कोलकाता की भरी बस्ती में होने के कारण हालाँकि आनेवाले भक्तों के लिए सुविधाजनक था, लेकिन अब धीरे धीरे रामकृष्णजी पर दवाइयों का असर होना बन्द हो चुका था और इस कारण डॉक्टर ने आबोहवाबदलाव सूचित किया था और किसी निसर्गसान्निध्य होनेवाली जगह में उन्हें रखा जायें, ऐसा मशवरा दिया था। इस कारण शिष्यगण अब शहरी शोरगुल से दूर, निसर्गसान्निध्य में होनेवाली ऐसी जगह ढूँढ़ने के काम में जुट गये थे।

जल्द ही ऐसी एक जगह उन्हें पसन्द आयी। कोलकाता से कुछ दूरी पर, कोलकाता-बरनगोर मार्ग पर के काशीपूर में यह घर था। गोपालचंद्र मुखर्जी नामक व्यक्ति के लगभग पाँच एकड़ में फैले बागान में होनेवाला यह फार्महाऊस, निसर्गसान्निध्य में होने के कारण शिष्यों को रामकृष्णजी के लिए सभी दृष्टि से सुयोग्य घर प्रतीत हुआ और उसे तय करके ११ दिसम्बर १८८५ को रामकृष्णजी को वहाँ ले जाया गया। रामकृष्णजी को भी यह घर पसन्द आया।

लेकिन प्रतिमाह ८० रुपया क़िराया होनेवाला यह घर दरअसल पहलेवाले घर से बहुत ही महँगा था। मगर रामकृष्णजी को भी वह पसन्द आया हुआ देखकर, ‘अब चाहे कुछ भी होने दो, अब यही घर; खर्चे का वगैरा हम आपस में देख लेंगे’ ऐसी शिष्यगणों ने ठान ली थी।

यहाँ पर छोटीं छोटीं बातों में अड़चनें बहुत थीं। पहलेवाला घर कोलकाता में ही होने के कारण शिष्यगण दोपहर के समय अपने अपने घर जाकर खाना खाकर वगैरा आ सकते थे। लेकिन यह जगह तत्कालीन कोलकाता शहर के बाहर होने के कारण, वैसा करना अब मुमक़िन नहीं था; अर्थात् सेवा करना चाहनेवाले शिष्यगणों को उधर ही रहना पड़नेवाला था; स्वाभाविक रूप में उनके दोपहर के खाने का खर्चा भी बढ़नेवाला था।

ऐसे छोटेमोटे कई प्रश्न थे, लेकिन शिष्यगणों के हौसलें बुलंद थे। उन्हें अपने गुरुजी के आराम के सामने अब सबकुछ गौण प्रतीत हो रहा था।

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