परमहंस-१५

लाहाबाबू की बेटी प्रसन्नमयी हालाँकि छोटे गदाई से ‘गदाई, क्या तुम ईश्वर हो?’ ऐसा ठेंठ प्रश्‍न पूछती थी, मग़र फिर भी यह प्रश्‍न गदाधर को हैरान कर देता था और वह कुछ न कुछ बातें बनाकर प्रश्‍न को टाल देता था। लेकिन प्रसन्नमयी का छोटा भाई गयाविष्णु के साथ उसकी अच्छीख़ासी दोस्ती हो चुकी थी और वे दोनों घण्टों तक खेलकूद करते रहते थे।

गदाधरगदाई कोई तो श्रेष्ठ विभूति है, ऐसी धारणा रहनेवाली प्रसन्नमयी अकेली नहीं थी, तो ऐसे अन्य भी कई लोग कामारपुकूर में थे, जो गदाई को ईश्वरीय मानव मानते थे।

कामारपुकूर के एक बूढ्ढे दूकानदार का तो उससे बहुत ही लगाव था। वह हररोज़ गदाई की आतुरता से राह देखता था। जब भी कभी गदाई उसकी दूकान में आ जाता था, तब वह उसे खाने की चीज़ें देता और उसे हमेशा कहता, ‘‘गदाई! मुझे यक़ीन है कि तुम ईश्वर हो; लेकिन तुम्हारी भविष्यकालीन लीलाएँ देखना शायद मेरे नसीब में नहीं है, मैं अभी ही कितना बू़ढ्ढा हो चुका हूँ।’’

लेकिन गदाई को ऐसी बातें हमेशा ही हैरान कर देती थीं और ये सब लोग उससे यह सब क्यों कह रहे हैं, यह उसकी समझ में नहीं आता था।

लेकिन अब उपनयनविधि के बाद उसकी उपासना और गायत्रीमंत्रपुरश्‍चरण बढ़ता ही जा रहा था। वह अधिक से अधिक अंतर्मुख भी होने लगा था।

आसपास की दुनिया में देखता, तो कई बार वह असमंजसता में पड़ जाता था। उस दौर में उसके घर में भी कई अच्छीं-बुरीं बातें घटित हो रही थीं। बड़ा भाई रामकुमार अकेला ही गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा था। उसकी एवं बड़ी बहन कात्यायनी की, ऐसे दोनों की भी शादियाँ, पिताजी के निधन से पहले ही हो चुकी थीं। अब पिताजी के निधन के बाद छोटी बहन सर्वमंगला भी ब्याहकर उसके ससुराल चली गयी; वहीं, मँझला भाई रामेश्वर का विवाह होकर भाभी घर में आयी थी। रामेश्वर की पढ़ाई उसी समय ख़त्म हो चुकी होने के कारण उस ज़माने की रूढ़ि के अनुसार उसकी शादी हुई थी, मग़र फिर भी वह अभी तक कुछ ख़ास कमाता न होने के कारण उसकी भी चिन्ता रामकुमार को खाये जा रही थी।

इसी दौरान एक प्यारे से बच्चे को जन्म देकर रामकुमार की पत्नी परलोक सिधार गयी।

इन सारे उतार-चढ़ावों, सुखदुखों का अनुभव करते हुए, धीरे धीरे गदाधर का नटखटपन दूर होकर वह बुज़ुर्गों की तरह, प्रगल्भ विचार करने लगा था….अधिक से अधिक अंतर्मुख होता चला जा रहा था।

‘यह कैसा जीवनक्रम है? क्यों ये इन्सान इस तरह फुटकर गृहस्थी करते रहते हैं? इस सारे अस्तव्यस्त फैले संसार का सूत्रधार कौन? यदि ऐसा कोई सूत्रधार है भी, तो क्या मैं उसे मिल पाऊँगा’ ऐसे प्रश्‍न उसे सताने लगे थे और आत्मचिंतन के ज़रिये इन प्रश्‍नों की स्वयं ही खोज करने का उसका काम शुरू था। निरन्तर आत्मचिंतन के कारण उसकी मनोभूमिका अच्छी-ख़ासी प्रगल्भ हो चुकी थी। कई बार उसकी बातों में से इसका प्रमाण भी लोगों को मिलता था।

एक बार ज़मीनदार लाहाबाबू के वाड़े पर किसी धार्मिक विधि के लिए बहुत बड़ा पुरोहितवर्ग इकट्ठा हुआ था। कई स्थानों के, ज्ञानी माने जानेवाले पंड़ित वहाँ पर मौजूद थे। विधि संपन्न होनेपर भोजन करने के बाद, विश्राम करते समय उस पुरोहितवर्ग में विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा शुरू हुई, जो थोड़ी देर बाद शास्त्रार्थ पर के वादविवाद में रूपांतरित हुई। ‘ईश्वर निर्गुण निराकार या सगुण साकार’ इस जैसे कई मुद्दों पर इस पुरोहितवर्ग में बहुत चर्चा हुई। दोनों पक्ष पीछे नहीं हट रहे थे और अपने अपने मतों के समर्थन में विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में से बड़े बड़े संदर्भ बिना किसी दिक्कत के दे रहे थे।

उस पुरोहितवर्ग की सेवा करने के लिए गाँव के कई बच्चे वहाँ पर आये थे, वैसे ही गदाई भी उपस्थित था। बाक़ी के बच्चों को स्वाभाविक रूप में, उन गहन विषयों में से कुछ भी समझ नहीं आ रहा था और वे सब, उनकी राय में ‘यह जो कुछ ‘झगड़ा’ चल रहा था’, उसके मज़े ले रहे थे।

गदाई हालाँकि इन शास्त्रीपंड़ितों की जितनी हो सके उतनी सेवा कर रहा था, मग़र फिर भी उसका सारा ध्यान शास्त्रार्थवाद की ओर ही था और उसके चेहरे पर के भाव कुछ इस तरह थे कि वह गहन वादविवाद मानो उसकी समझ में आ रहा हो और मुख्य रूप में उस विवाद के उत्तर मानो वह जानता हो।

एक मुद्दे पर बहुत सारे युक्तिवाद प्रस्तुत करने के बावजूद भी कोई अंजाम नहीं निकल रहा था, इस कारण चर्चा रुक गयी थी। एक-दूसरे के सारे युक्तिवाद सामनेवाले ने झुठला दिये थे। अब दोनों पक्ष अपने अपने मत के समर्थन में नया कुछ संदर्भ पेश न कर सकने के कारण चर्चा रुक गयी थी।

कब से यह सारी चर्चा शान्तिपूर्वक सुन रहा गदाई उठकर खड़ा हो गया….

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