परमहंस-२०

बहुत ही अमीर रहते हुए भी अत्यधिक सात्त्विक प्रवृत्ति की, कोलकाता (उस समय का कलकत्ता) के नज़दीक प्रचंड बड़ी ज़मीनदारी की मालकीन होनेवाली राणी राशमणि प्रजाभिमुख थी।

उसके प्रजाभिमुख शासन की एक कथा ऐसी बतायी जाती है –

जब वहाँ के मछुआरों पर अँग्रेज़ सरकार ने एक अन्याय्य अतिरिक्त कर (टैक्स) लगाया, तब वे अपनी फ़रियाद लेकर उसके पास आये थे। यह कर अन्याय्य था, यह तो खुलेआम दिख ही रहा था। उन्हें इन्साफ़ दिलाने का राशमणि ने मान्य किया।
सारे हालातों का सखोल अध्ययन करके वह संबंधित अँग्रेज़ अधिकारियों से जा मिली। अँग्रेज़ों के साथ, ‘उनकी समझ में आनेवाली’ अर्थात् ‘फ़ायदे-घाटे की’ भाषा में ही बात करने का उसने तय किया था।

कोलकाताउसने सीधे – ‘इस सागरी विभाग की विपुल जलसंपत्ति पर मेरी नज़र है’ ऐसा उन्हें बताकर, ‘इस विभाग में मछली पकड़ने के सर्वाधिकार (मोनोपली) मुझे चाहिए’ ऐसी उनसे माँग की और उसके लिए बहुत बड़ी रक़म अदा करने की तैयारी दर्शायी। उस मोटी रक़म को सुनकर अँग्रेज़ों के मुँह से लार टपकने लगी और उन्होंने आगे-पीछे की कुछ भी न सोचते हुए वे अधिकार उसे सुपूर्त कर दिये।

लेकिन इस प्रकार उस विभाग में मछली पकड़ने के सर्वाधिकार प्राप्त होने के बाद राशमणि ने पहली बात यह की कि उस सारे विभाग के चारों ओर रस्सियाँ, चैनें आदि रोड़े लगाकर वह विभाग ही सील कर दिया और सबसे पहले अँग्रे़ज़ों के जहाज़ों पर ही वहाँ आने के लिए पाबंदी लगायी!

अँग्रेज़ों ने गुस्सा होकर उसे स्पष्टीकरण पूछा, लेकिन उसने सीधे – ‘इस विभाग के सर्वाधिकार अब बाक़ायदा दस्तावेज़ों के अनुसार मेरे पास हैं। जहाज़ों के आने-जाने से यहाँ का जलजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है और फिर मेरे आदमियों को मछलियाँ पकड़ने में दिक्कत होती है तथा नुकसान भी सहना पड़ता है। अब इतनी मोटी रक़म अदा करके मैंने ये सर्वाधिकार प्राप्त किये होने के कारण, मैं इतना नुकसान नहीं सह सकती। अतः मेरी इजाज़त के बिना आपके जहाज़ भी वहाँ मछली पकड़ने या आवागमन करने नहीं आ सकते’ ऐसा क़रारा जवाब दिया। किसी भी दबाव के तले वह झुक नहीं रही है, यह देखने पर अँग्रेज़ों ने, शान्ति से इस उलझन को सुलझाने हेतु उसे चर्चा के लिए बुलाया। तब इस चर्चा के दौरान राशमणि ने – अँग्रेज़ों ने ग़रीब मच्छिमारों पर किस तरह अन्याय्य कर लगाया है, यह उन्हें समझाकर बताया।

आख़िर बहुत चर्चा के बाद पीछे हटते हुए अँग्रेज़ों ने, वह अन्याय्य कर ख़ारिज़ किया होने का निर्णय घोषित किया।

तो ऐसी यह प्रजाभिमुख राणी राशमणि स्वभाव से बहुत धार्मिक भी थी, यह भी हम देख चुके हैं। उसने अनेक मंदिरों का निर्माण किया था, साथ ही, कई देवस्थानों को उसने चंदा भी दिया था।

इस राणी राशमणि ने कोलकाता के उत्तर की ओर, गंगा नदी के ही किनारे एक भव्य मंदिर का निर्माण किया था – ‘दक्षिणेश्‍वर काली मंदिर’!

रामकृष्णजी के अगले जीवनकाल का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आत्मीयता का स्थान साबित हुए इस ‘दक्षिणेश्‍वर काली मंदिर’ के निर्माण की कथा ऐसी बतायी जाती है –

यह लगभग सन १८४७ के आसपास की बात है।

भारतीय समाजमन में प्राचीन समय से सर्वोच्च आत्मीयता का स्थान प्राप्त की हुई ‘काशी’यात्रा (वाराणसीयात्रा) राणी राशमणि करना चाहती थी और उसने गत कुछ वर्षों से उसके लिए बाक़ायदा तैयारी भी शुरू की थी।

लेकिन अपने साथ ही, अपने आप्तजन, रिश्तेदार, घर के नौकरचाकर इन्हें भी इस काशीयात्रा का सौभाग्य प्राप्त हों इसलिए, उसने कई लोगों को अपने साथ आमंत्रित किया था। साथ ही, वहाँ भगवान को अर्पण करने के लिए कई क़ीमती वस्तुएँ, गहनें, वस्त्र, नक़द रक़म आदि साथ में ले जा रही होने के कारण, उनकी सुरक्षा के लिए कई सिपाही-पहरेदार भी साथ में होनेवाले थे। ये सभी और अन्नधान समेत नित्योपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा भांड़ार, आदि साज़सामान के साथ, गंगा नदी में से ही लगभग 24 नौकाओं में कोलकाता से यात्रा करते हुए वाराणसी पहुँचने का उसने तय किया था।

लेकिन ईश्वर के मन में शायद कुछ और ही था!

राशमणि के वाराणसी-प्रयाण की घड़ी अगले दिन तक आ पहुँची और पिछली रात उसे एक सपना आया….

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