परमहंस-४१

इन हलधारी का रामकृष्णजी के बारे में मत, कम से कम शुरुआती दौर में तो दोलायमान ही रहा।

कभी कभी रामकृष्णजी उन्हें पूरे पागल प्रतीत होते थे; वैसा उन्होंने हृदय को कई बार बताया भी था। ख़ासकर वे जब अपनी तांत्रिक उपासनाओं के कारण अहंकार के आधीन हो जाते थे, तब उनका मत इस तरह बदल जाता था, ऐसा कुछ जगहों पर नमूद किया गया है।

‘गदाधर की विचित्र पूजनपद्धति, उसकी विभिन्न उपासनाएँ यानी भावोत्कटता वगैरा कुछ भी न होकर, महज़ पागलपन है’ ऐसी राय ज़ाहिर करके, ‘इसका जन्म किस कुल में हुआ है और ऐसे कुल को कालिख़ पोछनेवालीं बातें यह कैसे करता है’ ऐसी शिक़ायत वे हृदय के पास करते थे।

लेकिन कभी कभी इसके ठीक विपरित ही घटित होता था। यानी उन्हें रामकृष्णजी में ईश्‍वरत्व का साक्षात्कार होता था। वह भी उन्होंने कई बार – यहाँ तक कि रामकृष्णजी को भी कहा था। ‘कैसे पकड़ लिया तुम्हें, तुम मुझे यूँ धोख़ा नहीं दे सकते। इस गदाधर के रूप में, हे ईश्‍वर, तुम ही आये हो ना?’ ऐसा वे रामकृष्णजी से ही कहते। रामकृष्ण भी फ़िर – ‘अब जो पकड़ लिया ही है तुमने, तो फ़िर छोड़ क्यों देते हो बीच में ही? कसकर पकड़कर रखो’ ऐसा उन्हें चीढ़ाते थे। ‘इतने ढ़ेर सारे पुस्तक-पोथियाँ पढ़कर तुमने जो ज्ञान महज़ ‘इकट्ठा किया है’, उसका मैंने माता की कृपा से ‘अनुभव किया है’, ऐसी खरी खरी भी रामकृष्णजी उन्हें सुनाते थे।

लेकिन कभी कभी चन्द कुछ ही घण्टों में हलधारी का मत बदला हुआ होता था और गाड़ी पुनः मूल स्थान पर गयी होती थी;

….और ऐसा होने के बाद पुनः हलधारी रामकृष्णजी का बुद्धिभेद करनेवाले युक्तिवाद उनके सामने प्रस्तुत करते थे। जब भी ऐसा कुछ होता था, तब रामकृष्णजी कालीमंदिर में जाकर देवीमाता के सामने बैठकर उससे करुणा की प्रार्थना करते थे। ऐसी स्थितियों में उन्हें कभी किसी तेजोमय दाढ़ीदारी मनुष्य के, तो कभी किसी पवित्र स्त्री के दर्शन होकर, उस उस आकृति ने उनका विकल्प दूर किया होने की बात बतायी जाती है।

यह सिलसिला आगे भी कई बार चलता रहा। हलधारी के मन में एक बार कालीमाता के बारे में भी – ‘यह देवता तामसी है और ‘रघुबीर’ यह कुलदेवता होनेवाला गदाधर उसकी उपासना कर ही कैसे सकता है’ ऐसा विकल्प आया और उन्होंने वह रामकृष्णजी को ही सुनाया। अपने बारे में हलधारी जो कुछ भी बोले, उसकी ओर कुछ ख़ास ध्यान न देनेवाले रामकृष्णजी – अपनी माता के बारे में उच्चारित ये शब्द सह ही नहीं सके। वे झट से वहाँ से निकलकर कालीमंदिर आये और देवीमाता के सामने ज़िद पकड़कर बैठ गये कि ‘हलधारी ने ऐसा क्यों कहा?’ तब कालीमाता ने स्वयं उन्हें दर्शन देकर प्यार से समझाबुझाते हुए, उनके मन में उठा यह विकल्प दूर कर दिया, ऐसा कहा जाता है।

यह सुनकर रामकृष्ण आनंदातिरेक से, उल्टे पाँव हलधारी के पास चले आये और भावोत्कटता से हलधारी के कन्धों को पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से हिलाते हुए, वे पुनः पुनः हलधारी को सुना रहे थे कि ‘देखो, मेरी माँ को तामसी कहते हो? मेरी माँ बिलकुल भी तामसी नहीं है। दरअसल तीनों गुण उसी में समाये हुए हैं और फ़िर?भी वह पूरी तरह सत्त्वगुणी है।’

उस दिन के रामकृष्णजी के स्पर्श में ना जाने क्या जादू था, लेकिन कम से कम उस समय तक तो हलधारी मन में होनेवाला सारा विकल्प पूरी तरह नष्ट हो गया। उन्होंने अचानक रामकृष्णजी के चरणों में गिरकर, चरणों में माथा टेककर उनका गंध-फ़ूलों से पूजन किया। उस समय रामकृष्णजी में उन्हें कालीमाता के ही दर्शन हुए, ऐसा कहा जाता है।

ऐसे ही दिन कट रहे थे। लेकिन राणी राशमणि और मथुरबाबू को रामकृष्णजी की तबियत के बारे होनेवाली चिन्ता क़ायम थी। वहाँ कामारपुकूर में रामकृष्णजी की जन्मदात्री माँ चंद्रादेवी तक भी, रामकृष्णजी के बारे में, उनकी विचित्र प्रतीत होनेवाली उपासनापद्धति के बारे में और आचरण के बारे में उल्टीसीधी बातें पहुँची होने के कारण वह चिन्ता में पड़ गयी थी।

‘गदाधर को पुनः कामारपुकूर भेज दीजिए’ ऐसा पत्र उसने दक्षिणेश्‍वर भेजा।

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