परमहंस-५७

एक बार भगवान के दर्शन हो जानेपर, उस में ही सन्तुष्ट न रहते हुए रामकृष्णजी ईश्‍वर के विभिन्न रूपों के दर्शनों की लालसा मन में रखकर, उसके लिए अथक रूप में प्रयास कर रहे थे और उस हेतु उन्होंने भक्ति के लगभग सभी प्रकारों को अपनाया।

इस प्रवास में उन्हें ‘गुरु’ के रूप में प्राप्त हुई भैरवी से लगभग तीन साल, बहुत ही कठिन ऐसी तांत्रिक साधना की शिक्षा प्राप्त करने के बाद, अब दक्षिणेश्‍वर आये ‘जटाधारी’ से वात्सल्यभक्ति के पाठ रामकृष्णजी पढ़ रहे थे। उनके इस खेल में शामिल हुआ था, वह जटाधारी का ‘रामलल्ला’ – बालरूप में होनेवाले श्रीराम, जो जटाधारी की तरह ही उन्हें भी प्रत्यक्ष रूप में दिखायी देता था, प्रत्यक्ष रूप में उनके साथ हँसता-रूठता था, प्रत्यक्ष रूप में उनके साथ खेलता-कूदता था।

इस कालखंड के बारे में आगे चलकर अपने शिष्यों को बताते हुए भी रामकृष्णजी भावुक हो उठते थे।

ईश्‍वर के विभिन्न रूपों

रामकृष्णजी बताते थे, ‘‘….धीरे धीरे ऐसा होने लगा कि मैं जैसे ही जटाधारी के कमरे से निकलता, रामलल्ला मेरे पीछे पीछे आने लगता था। शुरू शुरू में मुझे वह केवल आभास ही प्रतीत हुआ। लेकिन वह वाक़ई मेरे पीछे पीछे आता था। मैंने उसे समझाया, उसे डाँटा भी, लेकिन उसमें कोई फ़र्क़ नहीं था। अब वह कई बार जटाधारी की अपेक्षा मेरे साथ ही होता था। इससे जटाधारी कुछ चिढ़-सा गया था। एक दिन उसे खाना खिलाने के लिए बुलाने हेतु जटाधारी मेरे कमरे में आया। रामलल्ला मेरे साथ ही था। लेकिन उसने जटाधारी के साथ जाने से इन्कार कर दिया। आख़िरकार जटाधारी का सब्र टूट गया और वह अपने प्राणप्रिय रामलल्ला पर चिल्लाया भी। लेकिन बाद में उसे अपनी ग़लती का एहसास हो गया कि ‘मैं मेरे रामलल्ला से प्रेम करता हूँ, वह मेरी ज़रूरत है। फिर रामलल्ला की खुशी में ही अपनी खुशी होनी चाहिए। अपने प्रेम को उसने इसी प्रकार से ही प्रतिसाद देना चाहिए ऐसी पाबंदियों में मुझे रामलल्ला को नहीं फँसाना चाहिए’; और फिर वह रोते रोते मेरे पास आया और उसने दक्षिणेश्‍वर से विदा लेने की मुझसे अनुमति माँगी और मुझे यह भी बताया कि ‘रामलल्ला तुम्हें (रामकृष्णजी को) छोड़कर मेरे साथ (जटाधारी के साथ) जाना नहीं चाहता। लेकिन अब मुझे इस बात को कोई दुख नहीं है। मेरे भाग्य में जितनी वात्सल्यभक्ति थी उतनी, दरअसल उससे भी अधिक मुझे प्राप्त हुई। रामलल्ला यहाँ तुम्हारे साथ खुश है, उसीका मुझे आनन्द है’ और यह कहकर जटाधारी ने दक्षिणेश्‍वर से विदा ली और रामलल्ला यहीं पर रह गया।’’

भगवान हमेशा हमारे पास ही होते हैं, लेकिन हम हमारी मामूली इच्छा आकांक्षाओं के पीछे दौड़ते रहते हैं और हमें भगवान की ओर देखने के लिए समय नहीं मिलता। उन ईश्‍वर को केवल प्रेम से और भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है, इसकी मिसाल रामकृष्णजी ने अपनी कृतियों में से क़ायम की थी। ईश्‍वर को प्राप्त करने के ज्ञानमार्ग, योगमार्ग, कर्ममार्ग इत्यादि मार्ग भी हैं ही, लेकिन उसमें भी भक्तिमार्ग का स्थान कुछ अलग ही है और यह बात मूलतः भक्त होनेवाले रामकृष्णजी अच्छी तरह जानते थे। इसी कारण, तीन साल तक इतनी मुश्किल तांत्रिक साधना कठोरतापूर्वक करने के बाद भी उन्होंने वात्सल्यभक्ति का मार्ग अपनाया।

इसके बाद अब उनके मन को मधुराभक्ति बुलाने लगी। ‘रसराज’ होनेवाले उस श्रीकृष्ण को यदि प्रेम से प्राप्त करना है, तो मुझे उससे मेरे प्राणों से भी अधिक प्रेम करना होगा, यह बात रामकृष्णजी ने ठान ली। वृंदावनस्थित गोपगोपियाँ, श्रीगौरांगचैतन्य महाप्रभु इन्होंने भी इसी मार्ग को अपनाया था। लेकिन इस ‘राधाभाव’ के जागृत हुए बिना श्रीकृष्ण की भेंट नहीं होती, यह जान जाने के बाद उन्होंने उसी व्याकुलता से राधाजी का अनुसंधान शुरू किया कि तुम्हारे कान्हा से मेरी एक बार तो मुलाक़ात कराओ।

यह व्याकुलता आगे चलकर इतनी बढ़ गयी कि पुनः उनके देह में दाह उत्पन्न होने लगा, लेकिन उन्हें उसकी ज़रा भी परवाह नहीं थी। वे अपने अनुसंधान में धीरे धीरे आगे चलते ही जा रहा थे….

और फिर एक दिन वह ‘राधाभाव’ ही सगुण साकार होकर उनके सामने खड़ा हुआ, वह एक तेजोमय ईश्‍वरीय सुन्दरता रहनेवाली स्त्री के रूप में। ‘‘जिसे ‘राधा’ ‘राधा’ कहते हैं, वह यही है, यह मुझे उसे देखते ही ज्ञात हो गया, क्योंकि उसके सुवर्णवर्णीय चेहरे पर यह स्पष्ट रूप में दिखायी दे रहा था कि उसे श्रीकृष्ण के अलावा और कोई चाह नहीं है, इतनी वह श्रीकृष्ण के खयाल में डूब गयी थी। मैं उसकी ओर देखता ही रह गया। थोड़ी देर बाद उसने मेरे देह में प्रवेश किया’’ ऐसा रामकृष्णजी ने आगे चलकर उस कालखंड के बारे में अपने शिष्यों को बताते समय कहा था।

इस घटना के बाद उनकी यह ‘राधाभाव’ की साधना अधिक तेज़ी से और अधिक तीव्र होती चली गयी और एक दिन….

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