परमहंस-६०

दास्य, सख्य, वात्सल्य? आदि नवविधा भक्ति, साथ ही तांत्रिक उपासना ये पड़ाव लाँघकर रामकृणजी ने अब अद्वैत सिद्धांत की उपासना का आरंभ किया था। उसके लिए आवश्यक वह सारी पूर्वतैयारी उनसे उनके इस साधना के गुरु तोतापुरी ने करा ली थी। इस साधना के लिए साधक द्वारा संन्यास लिया जाना आवश्यक होने के कारण, तोतापुरी ने रामकृष्ण को संन्यास दिलाया था।

अब तोतापुरी ने अपने शिष्य को पहला सबक सिखाना शुरू किया। रामकृष्णजी नम्रतापूर्वक उनके सामने बैठे थे। तोतापुरी ने बात करना आरंभ किया –

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‘ब्रह्म यह हालाँकि मानव के चर्मचक्षुओं को दिखायी नहीं देता, मग़र फिर भी वही एकमात्र और अंतिम सत्य है। नित्यशुद्ध, स्वयंप्रकाशी, नित्यस्वतंत्र होनेवाला यह ब्रह्म स्थल-काल से परे, साथ ही कार्यकारणभाव से भी परे है। उसी की माया की सहायता से वह जब जब अवतरित होता है, तब तब उसके उस समय के रूप को विभिन्न नाम दिये जाते हैं; लेकिन मूलतः वह एक ही एक तथा अखंडित है। जब साधक निर्विकल्प समाधि अवस्था प्राप्त कर लेता है, तब माया के प्रान्त में होनेवाले स्थल-काल, नाम-रूप की उपाधियाँ उसे त्रस्त नहीं कर सकतीं। माया के प्रान्त में होनेवाली हर बात क्षणभंगुर है, इस कारण उसकी आसक्ति छोड़ दो और किसी भी द्वैत से परे होनेवाले उस एक सत्य पर – ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करो। किसी जाल में? फँसा सिंह जिस प्रकार आसानी से जाल को तोड़कर शान से चला जाता है, उसी प्रकार यह विभिन्न नामों-रूपों का जंजाल तोड़कर उसमें से बाहर निकलो। अंतर्मुख हो जाओ और तुम्हारे भीतर गहराई में जो उस ब्रह्म का अस्तित्व है, उसका अनुसंधान करो। उसका ज्ञान प्राप्त करो, क्योंकि यही ज्ञान चिरकाल टिकनेवाला है, बाक़ी कर्मेंद्रियाँ द्वारा होनेवाला ज्ञान यह उथला होता है और उथले ज्ञान का, तुम्हारे जितनी ऊँचाई प्राप्त किये साधक के लिए कुछ भी उपयोग नहीं हैं।’

इस वाक़ये को आगे चलकर अपने शिष्यों को बयान करते हुए रामकृष्णजी बता रहे थे –

‘इस प्रकार दीक्षा देने के बाद ‘न्यांगटा’ (= तोतापुरी – तोतापुरी नागा साधु होने के कारण रामकृष्णजी सम्मानपूर्वक उनके लिए इस संबोधन का इस्तेमाल करते थे।) ने मुझे अद्वैत सिद्धान्त के विभिन्न पहलुओं के बारे में समझाकर बताने की शुरुआत की। अन्य सभी विषयों पर से मन हटाकर, केवल मेरे भीतर के ब्रह्म पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उन्होंने मुझसे कहा और मैंने तुरन्त ही वैसे प्रयास शुरू किये। अब भौतिक बातों की स्मृति मेरे मन से धीरे धीरे ओझल होने लगी। आसपास का, आसपास के परिसर का भान भी धीरे धीरे मिटने लगा। अन्य भौतिक विषयों को लेकर कोई समस्या उद्भवित नहीं हुई, वह मैं आसानी से कर सका। लेकिन….

….लेकिन मुझसे मेरी माता का रूप, माता का नाम भुलाया नहीं जा सक रहा था! मैं जानतोड़ कोशिश कर रहा था, बाक़ी सबकुछ मुझसे भुलाया जा भी सक रहा था। अब मुझे जल्द ही सफलता मिलेगी ऐसा प्रतीत होने लगता था कि तभी, ठीक उसी समय माता का चेहरा मेरी आँखों के सामने दिखायी देने लगता था; सारी मेहनत मिट्टी में…. पुनः पहले से शुरुआत करनी पड़ती थी। लेकिन माँ का चेहरा शरारतभरी मुस्कान के साथ मेरी ओर देखता रहता था और मैं उस करुणामूर्ति माता की वात्सल्य-मुस्कान में ही अटका रहता था।

कई बार प्रयास करके मैं थक गया, लेकिन माता का चेहरा भूलना मेरे लिए कतई संभव नहीं हो रहा था।

मैंने आख़िर थोड़ीसी निराशा के साथ ही जब यह न्यांगटा को बताया, तब वे गुस्से से बोले – ‘ऐसे कैसे तुम माता का चेहरा भूल नहीं सकते? उसे भी भूला देना चाहिए, तब ही इस मार्ग पर तुम आगे की मार्गक्रमणा कर सकते हो।’

फिर उन्होंने यहाँ-वहाँ देखा। तब उन्हें वहाँ पास ही में पड़ा काँच का एक नुकीला टुकड़ा दिखायी दिया। उसे लेकर उन्होंने उसकी नुकीली नोक से मेरी भौंहों के बीच आज्ञाचक्र के स्थान पर दबाया। इतने ज़ोर से कि? वहाँ से खून भी निकलने लगा। फिर उन्होंने कहा, ‘यहाँ…. इस स्थान पर तुम्हें ध्यान केंद्रित करना है। बाकी सबकुछ भूलकर उस ब्रह्म का अनुसंधान करना है।’

फिर मैं भी ज़िद पकड़कर चरमसीमा के प्रयास करने बैठ गया….’

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