परमहंस-६७

बनारस पहुँचते समय भी रामकृष्णजी को उस प्रकाशनगरी को लेकर एक चमत्कृतिपूर्ण दृष्टान्त हुआ था, जिसे उन्होंने बनारस पहुँचते ही मथुरबाबू को बयान किया था। जैसे ही बनारस नगरी दूर से दिखायी देने लगी, तभी हुए इस दृष्टान्त में उन्होंने ऐसा दृश्य देखा कि ‘पुरातन समय से शिवजी का स्थान मानी गयी यह काशीनगरी, यह कई पुरातन धर्मग्रंथों में वर्णन कियेनुसार ही संपूर्ण रूप से स्वर्ण की है और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोच्च मानी गयी इस नगरी में, पूरे विश्‍व के साधकों के, योगियों के, ऋषिमुनियों के, साथ ही आम भक्तों के भी पवित्र मंत्रोच्चार, जप, प्रार्थना आदि स्वीकृत किये जाते हैं और इसी कारण यह नगरी देवभूमि है; और यह आध्यात्मिक वाराणसी ही वास्तविक वाराणसी होकर, जो हमें अपनी खुली आँखों से दिखायी देती है वह भौतिक वाराणसी नगरी, यह उस वास्तविक आध्यात्मिक वाराणसी की महज़ प्रतिमा है।’

इस दृष्टान्त का रामकृष्णजी पर बहुत गहरा असर हुआ था और इस वाराणसीवास्तव्य के दौरान इस नगरी की पवित्रता को अधिक से अधिक बरक़रार रखने की दृष्टि से ही उनका आचरण होता था।

यहाँ मथुरबाबू ने, इतना बड़ा लवाज़िमा साथ होने के कारण, वाराणसी में केदारघाट के नज़दीक दो बहुत बड़े घर किराये पर लिये थे और वे किसी राजा-महाराजा की तरह वहाँ पर ठाटबाट से रहते थे। लेकिन वाराणसी में कदम रखने के बाद रामकृष्णजी तो अधिक ही अंतर्मुख हो चुके थे। वे अब भौतिक, व्यवहारिक बातों पर बात करना भी नहीं चाहते थे, लेकिन मज़े की बात यह थी कि अधिकांश बार ठीक ऐसे ही लोगों के साथ उनका पाला पड़ता था। मथुरबाबू जब वहाँ के अपने एक परिचित ज़मीनदार से मिलने गये थे, तब वे रामकृष्णजी को भी अपने साथ लेकर गये थे। वहाँ पर उनकी व्यवहारिक बातचीत से रामकृष्णजी इतने ऊब गये थे कि वे मन ही मन कालीमाता से दयायाचना करने लगे कि ‘कैसे लोगों की संगत में फँसा दिया तुमने मुझे माँ, जो भौतिक बातों में कितने उलझे हुए हैं?’

बनारस के मुख्य देवता काशीविश्‍वनाथ के दर्शन करने वे प्रायः हररोज़ ही जाते थे और उसके दर्शन होते ही उनके अष्टभाव जागृत होकर वे भावावस्था में चले जाते थे।

यहाँ आने के बाद मथुरबाबू ने वहाँ के ज्ञानी एवं भक्त जनों को घर भोजन के लिए बुलाने का सत्र शुरू किया था। बनारस के कई ज्ञानी माने गये शास्त्रीपंडितों को, थोर भक्तों को सहपरिवार भोजन के लिए मथुरबाबू अपने घर आमंत्रित करते थे और भोजनग्रहण कर वे तृप्त हो जाने के बाद उन्हें कपड़ें, दक्षिणा आदि देकर ही उन्हें विदा करते थे। उनमें से कइयों की रामकृष्णजी के साथ विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चाएँ भी होती थीं।

शुरू से ही सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थान माने जानेवाले बनारस में, स्वाभाविक रूप से कई थोर साधु-सन्त-योगी-भक्तों का वहाँ पर वास्तव्य रहता था। मथुरबाबू द्वारा घर भोजन के लिए बुलाये गये विभूतियों के साथ तो रामकृष्णजी की चर्चाएँ होती ही थीं; लेकिन कई बार, अब तक घर न आये किसी महान विभूति के बारे में सुनकर, रामकृष्णजी मथुरबाबू से कहलवाकर स्वयं होकर उस विभूति से मिलने जाया करते थे।

उस दौर के वाराणसीस्थित सबसे मशहूर व्यक्तित्वों में से एक थे – ‘त्रैलंग स्वामी’ नामक एक योगी। ये बनारस में ही नहीं, बल्कि बंगाल में भी अपनी योगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों के कारण तथा प्रदीर्घ-आयु के कारण मशहूर थे। त्रैलंग स्वामीजी की वास्तविक आयु किसी को भी पता नहीं थी, लेकिन उनकी उम्र कम से कम २५० साल की तो होगी, ऐसा विभिन्न संदर्भों की मिसालें देकर कहा जाता था। कुछ अभ्यासक उनका जन्मसाल सन १६०७ बताते थे; वहीं, कुछ अभ्यासकों का मानना था कि उनका जन्म सन १५२९ में हुआ था। ‘वे हमारे दादाजी के समय भी, दरअसल उससे भी पहले से बनारस में ही थे’ या फिर ‘हमारे परदादा ने अपने बचपन से उन्हें बनारस में देखा है’ ऐसा कहनेवाले कई लोग उस समय बनारस में थे।

त्रैलंग स्वामीजी की कई आख्यायिकाएँ बनारस में पीढ़ी-दर पीढ़ी बतायीं जातीं थीं। दशनामी पंथ के साधु होनेवाले त्रैलंग स्वामीजी कई दिन तक कुछ भी न खाते पीते गंगानदी में तैरते रहते थे, कभी मन हुआ तो गंगानदी में डुबकी लगाने के बाद कई दिनों के बाद पानी में से ऊपर आते थे या फिर कभीकभार वे पानी के ऊपर कुछ ऊँचाई पर हवा में भी तैरा करते थे। यह सब स्वयं अपनी आँखों से देखा होनेवाले लोग उस समय बनारस में जीवित थे। त्रैलंग स्वामीजी बहुत ही कम बात करते थे और प्रायः मौन धारण किये ही रहते थे। उनका आहार अत्यल्प होकर, कभी कभी तो वे कई दिनों तक कुछ भी नहीं खाते थे। ऐसा कई दिन का अनशन करने के बाद वे प्रायः मटकी भरकर मठ्ठा पीकर अनशन त्याग देते थे। इसके बारे में एक कथा ऐसी बतायी जाती है कि एक बार उनपर जलनेवाले एक श्रद्धाहीन ने उनकी परीक्षा लेने के लिए, उन्हें मठ्ठे के बदले वैसा ही दिखायी देनेवाला ज़हर पीने के लिए दिया। त्रैलंग स्वामीजी ने उस सारे ज़हर को पी लिया। उन्हें कुछ भी नहीं हुआ, लेकिन उन्हें ज़हर देनेवाला वह श्रद्धाहीन इन्सान, उसके बदन में हो रही तीव्र जलन की वजह से जगह पर ही तड़पने लगा और ‘मुझे बचाइए’ ऐसी उनसे रहम की?भीख़ माँगने लगा। तब त्रैलंग स्वामीजी ने उसे समझाने पर उसके बदन की जलन बन्द हो गयी।

ऐसे त्रैलंग स्वामीजी से मिलने की आस रामकृष्णजी के मन में बढ़ने लगी।

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