परमहंस-७०

इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थानों की भेंट से तथा आध्यात्मिक ऊँचाई हासिल किये साधकों की मुलाक़ातों से, इस तीर्थयात्रा का वृंदावनस्थित चरण रामकृष्णजी के लिए अत्यधिक भावपूर्ण प्रतीत हुआ था। वृंदावन के ध्रुवघाट पर उन्हें ‘वसुदेव नन्हें से श्रीकृष्ण को सिर पर रखी टोकरी में लेकर जमुना पार कर आ रहे हैं’ ऐसा भी दृष्टांत हुआ।

आगे चलकर दो हफ़्ते बाद वृंदावन का वास्तव्य ख़त्म कर ये लोग पुनः बनारस लौट आने के लिए निकले। लेकिन लौटते समय रामकृष्णजी ने – शायद भैरवी का अंतिम समय नज़दीक आया है यह मानो जानकर, भैरवी को वृंदावन में ही हमेशा के लिए रहने को कहा। उनके शब्द का पालन कर वह आख़िर तक वहीं पर रही और ये लोग वाराणसी लौट आने के कुछ ही दिनों में उसकी मृत्यु की ख़बर आयी थी।

बनारस लौट आने के बाद इन लोगों का – विभिन्न मंदिरों के दर्शन करना, आध्यात्मिक ऊँचाई हासिल किये विभिन्न व्यक्तियों से मिलना ऐसा दिनक्रम पुनः शुरू हुआ।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइसी दौरान रामकृष्णजी को अचानक वीणावादन सुनने की इच्छा हुई। दरअसल यह इच्छा उन्हें वृंदावन के वास्तव्य के दौरान ही एक बार हुई थी। लेकिन उस समय वहाँ पर कोई वीणावादक उपलब्ध न होने के कारण वह अधूरी ही रह गयी थी। लेकिन वृंदावन से लौटने के बाद वाराणसी में ही एक विख्यात वीणावादक रहते हैं, यह जानकारी उन्हें मिली। ‘महेशचंद्र सरकार’ नामक इन वीणावादक के घर रामकृष्णजी हृदय के साथ गये। महेशबाबू के लिए ‘वीणावादन’ ही ईश्‍वर था और दिलोजान लगाकर ही वे वीणावादन करते थे। रामकृष्णजी उनके घर पहुँचे और उन्होंने महेशबाबू का वीणावादन सुनने की इच्छा उनके पास ज़ाहिर की। महेशबाबू ने खुशी खुशी से ही ‘हाँ’ कर दी। लेकिन वीणावादन शुरू होते समय, उसका पहला झंकार सुनते ही रामकृष्णजी के अष्टभाव जागृत होते होते वे भावसमाधि में जाने लगे। लेकिन इस बार उन्होंने देवीमाता से तिलमिलाकर प्रार्थना की कि ‘माँ! अरी, मुझे वीणावादन का आनंद उठाना है, मैं भावसमाधि अवस्था को प्राप्त न हो जाऊँ, इसका खयाल तुम रखना’; और वाक़ई उसके बाद का पूरा वीणावादन वे होश में रहकर ही सुन सके। आगे के लगभग तीन घण्टें महेशबाबू उनके लिए दिलोजान से वीणावादन करते रहे। बीच बीच में रामकृष्णजी उस वीणा की साथसंगत लेते हुए उत्कटतापूर्वक एकाद भजन गाते थे, जिससे कि महेशबाबू और भी तल्लीन होकर वीणावादन करते थे। तीन घण्टें बाद हृदय द्वारा समय का भान दिलाया जाने पर रामकृष्णजी तृप्त होकर अपने निवासस्थल लौट आये। इस वाक़ये से महेशबाबू सार्थक हुए थे। उसके बाद, जब तक रामकृष्णजी का वास्तव्य वाराणसी में था, तब तक महेशबाबू हररोज़ रामकृष्णजी के निवासस्थल में आकर जाया करते थे।

इस प्रकार मथुरबाबू की तीर्थयात्रा की योजना बेहद सफल हुई थी। अब वापसी के प्रवास की तैयारी करनी थी। लेकिन मथुरबाबू के कदम बनारस से निकलने का नाम नहीं ले रहे थे। कुछ ख़ास प्रसंगों में काशीविश्‍वनाथ को विशेष पोशाक़ पहनाकर सजाया जाता था। मंदिर में भी उस समय विशेष सज़ावट की जाती थी। उसे देखने की मथुरबाबू की बड़ी इच्छा थी। इस कारण, फ़रवरी में तीर्थयात्रा शुरू किये मथुरबाबू अपने लवाज़िमें के साथ मई महीने के अन्त तक बनारस में ही डेरा जमाये थे और उस समारोह को देखकर तृप्त होने के बाद ही उन्होंने वापसी का प्रवास शुरू किया।

बनारस से वापस आते समय ‘गया’ तीर्थक्षेत्र की भेंट करने का मथुरबाबू का मानस था। लेकिन वहाँ जाने से रामकृष्णजी ने इन्कार करने के कारण मथुरबाबू को उस विचार को त्याग देना पड़ा। ‘गया’ का आध्यात्मिक महत्त्व ज्ञात होने के कारण और उसी के साथ अपने जन्म से पहले अपने पिताजी को वहाँ पर हुए दृष्टांत की कथा मालूम होने के कारण रामकृष्णजी को ऐसा लगा कि यदि वे वहाँ पर गये, तो शायद इस भौतिक विश्‍व से पीठ फेरकर वे हमेशा के लिए ही वहाँ पर निवास करेंगे। लेकिन कालीमाता ने उन्हें सौंपा जीवनकार्य अभी पूरा न हुआ होने के कारण वे ऐसा कर नहीं सकते थे और इसी कारणवश वे ‘गया’ जाना नहीं चाहते थे। इसलिए फिर मथुरबाबू ने भी गया भेंट की योजना ख़ारिज़ कर दी।

वृंदावन से बनारस लौटते समय रामकृष्णजी राधाकुंड और श्यामकुंड की मिट्टी अपने साथ ले आये थे। तीर्थयात्रा संपन्न कर बनारस से पुनः दक्षिणेश्‍वर लौटने के बाद, उसमें से कुछ मिट्टी उन्होंने अपने उपासनास्थल यानी पंचवटी की चहूँ ओर डाल दी और बाक़ी मिट्टी उनकी उपासना की झोंपड़ी में उपासनाबैठक के नीचे ग़ड्डा खोदकर उसमें डाल दी और ‘आज से यह स्थान वृंदावन जितना ही पवित्र हो चुका है’ ऐसा घोषित किया।

उसके बाद मथुरबाबू ने रामकृष्णजी की सूचना के अनुसार, बनारस और आसपास के गाँवों से वैष्णव शास्त्रीपंड़ितों को एवं भक्तों को आमंत्रण देकर उस स्थान पर एक छोटासा उत्सव ही किया। समारोप करते समय, आये हुए शास्त्रीपंड़ितों में से हर एक को सोलह रुपये और हर एक भक्त को भी एक एक रुपया दक्षिणा देकर उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया।

इस प्रकार मथुरबाबू की यह तीर्थयात्रा रामकृष्णजी से लेकर सभी के लिए अविस्मरणीय साबित हुई थी।

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