परमहंस- ९

नन्हें गदाधर को कल हुआ क्या था, इसका अंदेशा किसी को भी, यहाँ तक कि गाँव के वैद्य को भी नहीं हो रहा था। अहम बात यह थी कि वह स्वयं जो कल की हक़ीक़त बयान कर रहा था, उसपर भी विश्‍वास रखने के लिए कोई तैयार नहीं था।

‘काले घने बादलों की पृष्ठभूमि पर स़फेद बगलों का झुँड़ उड़ते हुए मैं टकटकी लगाकर देख रहा था। मेरा मन अचानक आनन्द से भर गया और एक पल क्या हुआ पता नहीं, मैं नीचे ज़मीन पर गिर गया। लेकिन मैं बेहोश नहीं हुआ था। ‘ये लोग मुझे नीचे गिरा देखकर दौड़ते हुए आये हैं और मुझे उठाकर घर ले जा रहे हैं’ यह मेरी समझ में आ रहा था’ यह गदाधर अपने माता-पिता को, गाँववालों को, आनेजानेवाले हर एक को पुनः पुनः बता रहा था….

स़फेद बगलों का झुँड़

….लेकिन किसी को भी उसकी बात का यक़ीन नहीं हो रहा था!

‘….हरगिज़ नहीं! क्या ऐसा कभी होता है?

….किसी निसर्गदृश्य पर इस तरह की टकटकी केवल बड़ेबड़े संतमहात्मा या फिर उच्च श्रेणि के चित्रकार-लेखक आदि कलाकारों की ही लग सकती है।

….छः साल का बच्चा कहाँ से लगायेगा टकटकी!’

ऐसा ही विचार, यह सब सुननेवाले के मन में उठता था।

उसकी माँ, बच्चे का यह विवरण सुनकर अधिक ही चिंतित हो रही थी। इसे कहीं बाहरी हवा तो नहीं लग गयी, इस आशंका से वह डर रही थी। लेकिन उसे ठीक से होश आया, यह देखकर उसका कलेजा शान्त हुआ था और यह बच्चा बच गया, वह मैंने जो उसकी नज़र उतारी, उसीका परिणाम है, ऐसा उस भोलीभाली स्त्री को दिल से लग रहा था।

वहीं, उसके पिताजी खुदिराम, उन्हें गदाई के जन्म से पहले हुआ दृष्टांत और कल घटित हुई बात इनका मेल बिठाने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें उनका जवाब मिला है ऐसा लग रहा था, लेकिन….

ख़ैर! ऐसे दिन बीत रहे थे। गदाधर सात साल का हो गया।

उसकी सन्निधता में उसके मातापिता को अपार आनंद मिल रहा था।

लेकिन उसी साल उनके सुखी परिवार पर दुख का पहाड़ ही मानो गिर गया….

खुदिरामजी परिवार को पीछे छोड़कर परलोक सिधार गये!

ख़ासकर नन्हें गदाधर पर वज्राघात ही हुआ। उसे अपने मातापिता से अत्यधिक लगाव था। उसपर का पिता का छत्र हट गया!

पहले से ही चिंतनशील रहनेवाला गदाधर पिता के निधन से अधिक ही अंतर्मुख हो गया। उसका शरारतीपन भी अब बहुत ही कम होकर वह गुमसुम रहने लगा, लेकिन उतना ही प्रगल्भ भी हुआ….माँ के बारे में सोचकर उसने अपना दुख मन की गहराई में छिपाकर रखा और अपना नित्यक्रम जारी ही रखा।

पाठशाला के साथ अन्य भी कई जगहें उसे भाती थीं। गाँव के मूर्तिकार का घर उसका विशेष रूप से पसन्दीदा था, क्योंकि वहाँ मिट्टी से देवीदेवताओं की मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। मिट्टी का रूपान्तरण देवता की मूर्ति में कैसे हो जाता है, इसका वह घण्टों तक निरीक्षण करते बैठता था।

एक बार ऐसे ही वह उस मूर्तिकार के पास जाकर, वहाँ पर बन रही मूर्ति का निरीक्षण करते बैठा था। मूर्ति पूरी हुई। उस अनुभवी मूर्तिकार ने बनायी मूर्ति, ज़ाहिर है सुघटित ही बनी थी, लेकिन उस मूर्ति में गदाधर को कुछ तो पसन्द नहीं आ रहा था। थोड़ी देर बाद उसका कारण उसकी समझ में आ गया – उस मूर्ति की आँखें….वे उसकी राय में कुछ ठीक नहीं जमी थीं – ईश्‍वर की आँखों में जो अपार करुणा महसूस होनी चाहिए, वैसी वहाँ दिखायी नहीं दे रही थी! उसने वैसा उस मूर्तिकार को बताया; इतना ही नहीं, बल्कि उससे अनुमति लेकर गदाधर ने उसे मूर्ति की आँखें स्वयं ठीक करके दीं।

अब वे आँखें बिलकुल ‘सजीव’ लग रही थीं और उनमें करुणा का एहसास भी हो रहा था!

गदाधर ने बनायीं उस मूर्ति की आँखें देखकर, अब तक कई मूर्तियाँ बना चुका वह मूर्तिकार बहुत ही गद्गद हो उठा और उसने गदाधर को एक बड़ा मिट्टी का गोला ‘बक्षिस’ के तौर पर दे दिया।

यह ‘बक्षिस’ साथ लेकर गदाधर घर आया। उसके हाथ में रहनेवाला वह मिट्टी का गोला देखकर उसकी माँ चकरा गयी। उसने सारी कथा सुनायी और अब वह स्वयं ही मूर्ति बनाने बैठ गया। तेज़ी से हाथ चल रहे थे….मिट्टी के गोले में से अनावश्यक भाग निकाला जा रहा था….मूर्ति को धीरे धीरे आकार प्राप्त हो रहा था….

मूर्ति पूरी हुई! उसने बनायी वह सुघटित ‘शितला’ माता की मूर्ति देखकर उसकी माँ की आँखों से आँसू बहने लगे।

आगे चलकर मानवी मनों को आकार देने का जो काम गदाधर के हाथों होनेवाला था, उसका मानो आविष्करण ही उस मूर्ति से दिखायी दे रहा था!

Leave a Reply

Your email address will not be published.