गोवा मुक्तिसंग्राम

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २४

pg12_Golwalkar-Gurujiस्वतंत्र हुए भारत के सामने नयीं नयीं चुनौतियाँ खड़ी हो ही रही थीं और संघ अपनी पूरी ताकत लगाकर उनका सामना कर रहा था और समाज की सेवा भी कर रहा था। १५ अगस्त १९५० को आसाम में बहुत बड़ा भूकंप हुआ। इस भूकंप के कारण ब्रह्मपुत्रा नदी का प्रवाह ही बदल गया। हज़ारों लोग इस भूकंप में अपनी जान गँवा बैठे, करोड़ों रुपये की संपत्ति नष्ट हुई। इस बार संघ ने फ़ौरन भूकंपपीड़ितों के लिए सहायता समिति की स्थापना की। श्रीगुरुजी तुरन्त आसाम जा पहुँचे। संघ का सेवाकार्य शुरू हुआ। लेकिन इस समय गुरुजी ने समाज को एक संदेश दिया – ‘हमारे इस विशाल राष्ट्र में प्रकृति के प्रकोप की घटनाएँ तो होती ही रहेंगी। यदि संघटित  रहें, एक-दूसरे की सहायता करने की तैयारी दर्शायी और अनुशासनबद्ध रहें, तो ऐसी चुनौतियों को हम मात दे सकते हैं।’

सन १९५२ में बिहार, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ भागों में भयानक अकाल पड़ा। श्रीगुरुजी ने इस सारे इला़के का दौरा किया। ‘हमें आत्मनिर्भर बनना है, बार बार याचना करने की आदत अपने आप को डालना, यह बहुत ही अनुचित है’ ऐसा गुरुजी ने समाज को जता दिया। जब देश पर, समाज पर संकट आता है, तब संघ हमेशा ही सहायता के लिए आगे बढ़ता है। लेकिन यह सहायता करते समय, किसी को भी याचक की भूमिका में देखना संघ को अच्छा नहीं लगता। संघ समाज को सशक्त बनाने के लिए है, समाज को दुर्बल बनाने के लिए नहीं, इस बात को स्वयंसेवक कभी भी नहीं भूलता। इसीलिए विस्थापितों का, शरणार्थियों का पुनर्वसन करते समय, उन्हें उपजीविका का अवसर उपलब्ध करा देने को संघ हमेशा प्रधानता देता आया है।

सन १९५२ के सितम्बर महीने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधी सभा’ की बैठक सम्पन्न हुई। इस बैठक में कई प्रस्ताव पारित हुए। उनमें ‘गोहत्याबंदी की माँग’ का समावेश था। इस देश में गोसंवर्धन का आर्थिक महत्त्व तो है ही, मग़र उससे भी ज़्यादा, यह धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। गोवंश की रक्षा, यह हमारे समाज की श्रद्धा एवं एकात्मता का प्रतीक साबित होती है। इसलिए संघ के स्वयंसेवकों ने जगह जगह कार्यक्रम किये और समाज को जागृत करने के प्रयास किये। समाज को जागृत कर, गोवंश की हत्या पर पाबंदी लगाने की माँग सरकार के सामने प्रस्तुत करने के लिए संघ ने मुहिम हाथ में ले ली। इस आवेदनपत्र पर तक़रीबन ढ़ाई करोड़ नागरिकों ने हस्ताक्षर किये। इसके लिए बड़ी तादाद में लोक एकत्रित हुए। जातपात, भाषा, प्रांत आदि भेदभाव बाजू में रख, सभी इस माँग पर दृढ़ थे। सभी के मन में गोमाता के प्रति पूज्यभाव था। फिर भी सरकार ने इस विषय में अपनी अस्पष्ट नीति क़ायम रखी, यह खेदभरी बात है।

भारत जैसे विशाल, खंडप्राय देश के विकास एवं प्रगति के लिए, महज़ एक या दो संगठन करके कुछ ख़ास हाथ नहीं लगेगा। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में विधायक कार्य करनेवाले अलग अलग संगठनों की आवश्यकता थी। डॉ. हेडगेवार ने सारे राष्ट्र को एक छत्र के तले लाने के लिए संघ की स्थापना की थी। यह कार्य करते समय, कई क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप में सकारात्मक कार्य की बहुत बड़ी ज़रूरत है, इस बात से डॉक्टर पूरी तरह सहमत हो चुके थे। इसीलिए डॉक्टर के कार्यकाल में, सन १९३६  में महिलाओं के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना हुई थी। शुरुआती दौर में डॉक्टर ने इस संगठन का मार्गदर्शन किया। डॉक्टर के पश्‍चात् संघ की बागड़ोर सँभाल रहे श्रीगुरुजी ने भी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ को मार्गदर्शन एवं सहयोग दिया। गुरुजी के सरसंघचालक रहते हुए, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय जनसंघ, हिंदुस्थान समाचार, भारतीय मजदूर संघ, विवेकानंद केंद्र, विश्‍व हिंदु परिषद ऐसे संगठन स्थापित कर, उनके द्वारा समाज की सेवा का और राष्ट्र को समर्थ करने का कार्य शुरू हो चुका था। इस हर एक संगठन की स्थापना के पीछे रहनेवाली प्रेरणा और उनके ध्येय-नीतियों के बारे में हम स्वतंत्र रूप में जानकारी लेंगे ही। लेकिन इस सारे कार्य के शुरू रहते, ‘हमारा देश पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहिए’ इस बात के लिए संघ हमेशा आग्रहशील रहा, इसकी याद दिलानी ही पड़ेगी।

‘अँग्रेज़ यहाँ से चले गए, यानी भारत पूरी तरह स्वतंत्र हुआ’ ऐसी सर्वसाधारण धारणा है। लेकिन अँग्रेज़ यहाँ से चले जाने के बाद भी दीव, दमण एवं गोवा में पुर्तगालियों (पोर्तुगीज़ो) का शासन था। अर्थात् देश हालाँकि स्वतंत्र हुआ था, मग़र फिर भी भारत का ही हिस्सा रहनेवाला गोवा ग़ुलामी में था। जब भारत में ‘वंदे मातरम्’ का जयघोष शुरू था, तब गोवा की जनता को पुर्तगालियों का कौतुक करनेवाले गीत गाने पड़ रहे थे। इसका खेद यहाँ की जनता को प्रतीत हो रहा था। मैंने इसका विदारक अनुभव किया है।

इस दौरान, मैं विल्सन कॉलेज में पढ़ रहा था। यहाँ पर गोवा, दीव और दमण में से आनेवाले कई छात्र पढ़ रहे थे। यहाँ आकर शिक्षा अर्जित करने के लिए इन छात्रों को पुर्तगालियों से अनुमतिपत्र लेना पड़ता था। क्या दुर्भाग्य की बात है, देखिए! देश सन १९४७ में स्वतंत्र हुआ, मग़र फिर भी अपने ही देश का हिस्सा रहनेवाले इस भूभाग के छात्रों को, पुर्तगालियों से अनुमतिपत्र लेकर मुंबई आना पड़ रहा था। ये मेरे सह-अध्यायी बार बार यह खेद ज़ाहिर करते थे। ‘हम कब मुक्त होंगे?’ यह उनका प्रश्‍न रहता था। वह सुनकर मैं बेचैन हो उठता था। कई बार हमारे कॉलेज के हॉस्टेल में मैं सब छात्रों के सामने ‘गोवा-दीव-दमण पुर्तगालियों से मुक्त होना ही चाहिए’ इसके लिए ज़ोरदार भाषण करता था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘गोवा-दीव-दमण’ की मुक्ति के लिए सरकार से कई बार माँग की। श्रीगुरुजी ने कई बार सरकार को इसके लिए आवाहन किया। लेकिन उसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। दरअसल स्वतंत्र हो चुके भारत के सामने, गोवा के पुर्तगाली चन्द कुछ घण्टें तक भी टिक नहीं सकते थे। लेकिन इस विषय में हमारी सरकार अत्यधिक अनास्था दर्शा रही थी। सरकार इस मामले में कुछ भी नहीं कर रही है, यह देखकर संघ ने सन १९५५ से गोवामुक्ति के लिए सत्याग्रह शुरू किये थे। इसमें संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथराव जोशी, सुधीर फड़के अग्रसर थे। सुधीर फड़के यानी ‘बाबुजी’ के नाम से जाने जानेवाले महाराष्ट्र के प्यारे संगीतकार। लेकिन उन्होंने संघ के प्रचारक के रूप में कार्य किया है।

आख़िरकार सरकार की नींद खुल गयी और सन १९६१ में गोवा, दीव, दमण अपने कब्ज़े में करने की आज्ञा हमारे लष्कर को मिल गयी। भारतीय लष्कर के पथक जब पुर्तगालियों को खदेड़ देने के लिए मुंबई सेंट्रल और उस समय के ‘व्हिक्टोरिया टर्मिनस’ (छत्रपती शिवाजी टर्मिनस) से निकले, तब उन्हें बिदा करने के लिए बड़ा जनसमुदाय इकट्ठा हो गया था। ‘भारतमाता की जय’ की घोषणा से सारा माहौल गूँज उठा था। घोषणा देनेवाले अनेक छात्रों में मैं भी था। इस कार्रवाई में भारतीय लष्कर का नेतृत्व किया था, ‘जनरल जे. एन. चौधरी’ ने। उन्होंने इतनी शीघ्रतापूर्वक गतिविधियाँ कीं कि गोवा को भारतीय लष्कर ने अपने कब्ज़े में कर लिया है, इसकी जानकारी पोर्तुगाल की सरकार तक पहुँचने तक गोवा में भारत का शासन प्रस्थापित हुआ था। ज़ाहिर है, पोर्तुगाल कुछ भी नहीं कर सका। यह चन्द कुछ घण्टों की कार्रवाई करने के लिए भारत सरकार ने इतने वर्ष गँवाएँ। उस मामले में दर्शायी गयी अनास्था यह कइयों के क्रोध का विषय बन चुकी थी। ख़ैर! देर से ही सही, मग़र गोवा-दीव और दमण की जनता भी ग़ुलामी से मुक्त हो गयी। उस समय विल्सन कॉलेज के मेरे सह-अध्यायियों ने किया हुआ जल्लोष अभी तक मेरी आँखों के सामने आ जाता है।

इस इला़के से आये छात्र अपना अनुभव बता रहे थे। ‘हम घर से निकले, तब हम परतंत्रता में थे। लेकिन अब हम जब जायेंगे, तब हमारी मातृभूमि स्वतंत्र हो चुकी देखेंगे’, यह कहते हुए हमारे ये सह-अध्यायी खुशी मना रहे थे।

सन १९६२ में गुरुजी के जीवन में एक दुखद घटना घटी। उनकी मातोश्री लक्ष्मीबाई का निधन हो गया। गुरुजी के पिताजी का पहले ही देहावसान हो चुका था। माँ का गुरुजी पर बहुत बड़ा प्रभाव था। कांची कामकोटी पीठाधीश शंकराचार्य परमाचार्यजी ने गुरुजी को शोकसंदेश भेजा। इस शोकसंदेश से गुरुजी की सांत्वना हो गयी। इस संदेश में परमाचार्यजी ने कहा था – ‘आपकी माता का देहावसान हो गया। इस कारण परमदुख होना स्वाभाविक ही है। लेकिन आपने – आप जैसे करोड़ों सपूतों की, आज ही नहीं, बल्कि अनादि काल से माता रहनेवाली जन्मदात्री और महामंगलमयी भारतमाता के लिए सर्वस्व समर्पित किया है। निरपेक्ष भाव से आप भारतमाता की सेवा में निमग्न हैं। इसलिए आपको मातृवियोग होना असंभव है।’

(क्रमश:)

Leave a Reply

Your email address will not be published.