जेल नहीं, बल्कि सरकारी खर्चे से चलनेवाला शिबिर

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ५३ 

एक लाख स्वयंसेवक और संघ के वरिष्ठ अधिकारी देश की विभिन्न जेलों में थे। इमर्जन्सी और कितने समय तक जारी रहनेवाली है, यह कोई भी नहीं जानता था। लेकिन देश के लिए दीर्घकालीन संघर्ष का सामना करने की तैयारी स्वयंसेवकों ने की थी। जेल में रहनेवाले और भूमिगत हो चुके स्वयंसेवक हर संभव मार्ग से सरकार के दमनतंत्र का विरोध कर रहे थे।

rameshbhai maheta

जेल में रहनेवाले स्वयंसेवकों का मनोधैर्य उच्च श्रेणि का था। हमें सरकारी खर्चे से दीर्घकाल चलनेवाले बड़े शिविर में रहने का अवसर मिला है, ऐसा ये स्वयंसेवक मजाक़िया अँदाज़ में कहते थे। क्योंकि बड़ी तादात में जेल में रहनेवाले स्वयंसेवकों के कारण यहाँ का वातावरण ही बदल गया था।

जेल में विभिन्न विषयों पर संघ के बौद्धिक जारी रहते थे। इनमें रामायण, श्रीमद्भागवत की कथाएँ, रामरक्षा, गणपतीस्तोत्र इनका पठण, आयुर्वेद, होमिओपॅथी पर के व्याख्यान, ज्योतिषशास्त्र के वर्ग यह सबकुछ देश की जेल में जारी रहता था। इस कारण जेल यह स्वयंसेवकों के मेले का स्थान बन गया था। गिरफ़्तार हुए स्वयंसेवकों को घर की चिंता नहीं थी ऐसी बात नहीं थी। लेकिन तुम्हारे परिवार से मिलनेवाले, उनका खयाल रखनेवाले लोग हैं, यह कहकर स्वयंसेवकों का धीरज बँधानेवाले ज्येष्ठ लोग भी जेल में थे ही। इसलिए स्वयंसेवकों का आत्मविश्‍वास और भी बढ़ रहा था।

इस दौरान जेल में से भूमिगत स्वयंसेवकों को और बाहर से जेल के स्वयंसेवकों को जो सन्देश पहुँचाने थे, वे सन्देश बिलकुल सुचारु रूप से पहुँचाये जा रहे थे। पुलीस को इसकी भनक तक नहीं लग रही थी। संघ का नेटवर्क कितना प्रभावी है, इसका प्रत्यय सरकार को आने लगा। इमर्जन्सी जारी करने पर भी संघ को क्यों रोका नहीं जा रहा है, ऐसा सवाल ज्येष्ठ पुलीस अधिकारियों से पूछा जा रहा था। इसके बारे में कोई भी ज़्यादा कुछ बोल नहीं रहा था। लेकिन जिनका खुद का अतापता नहीं ऐसे भूमिगत प्रचारकों तथा स्वयंसेवकों को हम ढूँढ़ं भी, तो किस पते पर? ऐसा सवाल पुलीस अधिकारी एक-दूसरे से करते थे।

संघ से संबंध न रहनेवाले परिवारों में ये भूमिगत हुए लोग रहते हैं, इसका पता पुलीस को चल चुका था। उनका सुराग ढूँढ़ना संभव नहीं है, इसका भी एहसास पुलीस को हो चुका था। इनमें से कई पुलीस अधिकारियों को तो केवल कर्तव्य के तौर पर आदेशों का पालन करना पड़ रहा था। लेकिन संघ द्वारा चल रहे कार्य के प्रति उनके मन में आदर की भावना भी थी। महाराष्ट्र और गुजरात की पुलीस ने सरकार के आदेशों का पालन करने का कर्तव्य निभाया। लेकिन यहाँ पर अत्याचार नहीं हुए। मग़र कुछ राज्यों में हालात भयंकर थे। फिर भी स्वयंसेवकों ने उसका धैर्यपूर्वक सामना किया।

येरवडा जेल में सरसंघचालक बाळासाहब देवरस और जनसंघ के वरिष्ठ नेता रामभाऊ म्हाळगीजी चर्चा कर रहे थे। ‘आनेवाले समय में, स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजतक हुआ नहीं, ऐसा परिवर्तन होनेवाला है’ ऐसा बाळासाहब ने इस समय कहा था। उनके शब्द सच हो गये। इमर्जन्सी के बाद हुए चुनावों में पहली ही बार काँग्रेस पार्टी को पराजय का झटका लगा। उसके बाद के समय में शायद इस राजनीतिक पार्टी को ऐसे कई झटके लगे होंगे। लेकिन ‘काँग्रेस को कोई विकल्प (आल्टरनेटिव्ह) नहीं है’ ऐसा उस ज़माने में माना जाता था। उस समय सरसंघचालक परिवर्तन के संकेत दे रहे थे, इस बात पर हमें ग़ौर करना चाहिए।

ख़ैर! येरवडा जेल में कई लोग बाळासाहब से आकर मिलते थे। एक बार समाजवादी कार्यकर्ता बाळासाहब से मिलने आये आए। ‘आप जेल में हैं, हज़ारों स्वयंसेवक जेल में हैं। संघ की शाखाएँ बन्द हैं और हज़ारों स्वयंसेवक भूमिगत हैं। फिर भी देश में शांति कैसे है?’ ऐसा सवाल इस समय उन कार्यकर्ता ने बाळासाहब से पूछा। इस प्रश्‍न का रूझान बाळासाहब ने समझ लिया। ‘आंदोलन यानी निश्‍चित रूप में क्या?’ ऐसा प्रतिप्रश्‍न इस समय बाळासाहब ने पूछा। ‘मारधाड़, लूटमार, हिंसाचार, संपत्ति की हानि यह आंदोलन का अर्थ हो नहीं सकता। ठीक है, सरकार ने मुझे गिरफ़्तार किया है। लेकिन मेरे जितनी ही क्षमता रहनेवाले चार-पाँच लोग भूमिगत रहकर कार्य कर रहे हैं। उनके मार्गदर्शन में संघ, देश को हानि न पहुँचें ऐसी पद्धति से अपना विरोध दर्ज़ कर रहा है’, यह बाळासाहब का उत्तर उन कार्यकर्ता के गले उतरा या नहीं, पता नहीं। लेकिन जब स्वयंसेवकों को इस बात का पता चला कि सरसंघचालक का उनपर कितना भरोसा है, उन्होंने सुकून पाया।

येरवडा जेल में रहते बाळासाहब ने प्रधानमंत्री इंदिराजी गांधी को एक पत्र लिखकर भेजा। गाँधीजी की दुर्भागी हत्या के बाद संघ पर तत्कालीन सरकार ने पाबंदी लगायी थी। उस समय गुरुजी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर, ‘यह ग़लत है’ इस बात का एहसास करा दिया था। ‘गाँधीजी की हत्या से संघ का कुछ भी संबंध न होने के बावजूद संघ पर जो पाबंदी लगायी गयी है, वह अन्यायकारक है’ ऐसा गुरुजी ने इस पत्र में लिखा था। इस बात की याद दिलाकर, ‘आप भी वहीं गलती कर रही हैं’ ऐसा बाळासाहब ने इंदिराजी से कहा था। ‘देश में भ्रष्टाचार, गैरव्यवहार मच गया है और उसके विरोध में शुरू किये हुए आन्दोलन की ओर आपको सुयोग्य दृष्टि से देखना चाहिए था। लेकिन आप इस आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें कर रही हैं, यह ग़लत ही है’ ऐसा बाळासाहब ने इस पत्र में लिखा था।

भूमिगत स्वयंसेवकों ने की हुई जनजागृति के परिणाम देशभर में दिखायी देने लगे। देश में सरकार के विरोध में असंतोष बढ़ने लगा। उसी समय आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत सरकार की इस नीति के विरोध में वातावरण तैयार हुआ। इसके लिए भी संघ ने विशेष प्रयास किये थे। विदेश में ‘फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसायटी इंटरनॅशनल’ नाम के संगठन का संघ ने निर्माण किया। इस संगठन के द्वारा भारत में फैले असंतोष की जानकारी दुनिया भर की जनता को दी जा रही थी। ‘दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र रहनेवाले भारत में यह चल क्या रहा है’ ऐसा प्रश्‍न विदेशी वृत्तपत्रों द्वारा पूछा जाने लगा।

ब्रिटन के ‘द इकॉनॉमिस्ट’ के ४ दिसम्बर १९७६ के संस्करण में, इमर्जन्सी के विरोध में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने शुरू किये आंदोलन की मुक्त कंठ से प्रशंसा की गयी थी। ‘यह सरकार के विरोध में बायी विचारधारा के संगठनों ने शुरू किया आंदोलन नहीं है। बल्कि, संघ के स्वयंसेवक भूमिगत रहकर अपने देश का जनतन्त्र बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके लिए उन्हें भारतीय समाज से संपूर्ण सहयोग मिल रहा है। हजारों स्वयंसेवक भूमिगत रहकर सरकार के दमनतन्त्र का विरोध करनेवाला साहित्य जनता में बाँट रहे हैं। उसके लिए आवश्यक रहनेवाली निधि भी जनता से ही प्राप्त हो रही है’, इस बात को भी ‘द इकॉनॉमिस्ट’ एवं अन्य विदेशी अख़बारों ने दर्ज किया था।

इमर्जन्सी के दौरान जनता से मिले सहयोग की याद आज भी ताज़ा है। मैं स्वयं हज़ारों स्वयंसेवकों की तरह उस समय भूमिगत रहकर कार्य कर रहा था। उस समय कइयों ने मुझे सहयोग दिया। केवल थोड़ी सी पहचान रहनेवाले लोग भी मुझे चुपके से पैसे निकालकर देते थे। ‘आप कर रहे कार्य के लिए हमारी यह थोड़ी सी सहायता’ ऐसा कहते हुए मेरे हाथ में नोट थमाए जाते थे। जनता के इस सहयोग के कारण स्वयंसेवकों का आत्मविश्‍वास अधिक ही बढ़ गया था। ‘यह धैर्य की कसौटी और ज्ञानतंतुओं का युद्ध है। सत्ताधारियों के अत्याचारों के विरोध में संघ समाज को जागृत करने में सफल होगा, आप विश्‍वास रखें’ ऐसा सन्देश पूज्य सरसंघचालक ने जेल में से ही दिया। इससे स्वयंसेवकों का जोश कई गुना बढ़ गया।

देश के साथ ही, विदेश में भी बढ़ते चले जा रहे प्रभाव का असर सरकार पर दिखायी देने लगा और उसके परिणामस्वरूप सरकार ने १८ जनवरी १९७७ को देश में चुनावों की घोषणा की।

दूसरी ओर विरोधी पार्टियों ने एक होकर इन चुनावों में हिस्सा लेने का निर्णय किया था और ‘जनता पार्टी’ की स्थापना हुई। उसके बाद, भूमिगत हुए सारे स्वयंसेवक बाहर आये। लेकिन जेल में रहनेवाले एक भी स्वयंसेवक को रिहा नहीं किया गया। इस दौरान सत्ताधारियों द्वारा संघ के ज्येष्ठ स्वयंसेवकों से संपर्क किया गया। ‘यदि आप चुनावों में ‘जनता पार्टी’ की सहायता नहीं करोगे, तो संघ पर लगायी गयी पाबंदी हटाकर सभी स्वयंसेवकों को छोड़ देंगे’ ऐसा प्रस्ताव रखा गया। ऐसे लालच का संघ शिक़ार बनेगा, ऐसा उन्हें लगता होगा। लेकिन वे संघ को जानते नहीं थे।

यह प्रस्ताव दिल्ली में हुई एक बैठक में रखा गया था। इस बैठक में संघ के ‘लाला हंसराज गुप्त’, ‘बापूराव मोघे’ और ‘ब्रह्मदेवजी’ उपस्थित थे। संघ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ‘संघ किसी भी प्रलोभन का शिकार नहीं बनेगा। संघ के लिए राष्ट्रहित ही सर्वोच्च रहेगा। किसी भी परिस्थिति में इस देश में जनतन्त्र की रक्षा होनी ही चाहिए’ यह बात इन तीनों ने दृढ़तापूर्वक कही। इस कारण लोकसभा के चुनाव ख़त्म होने पर भी स्वयंसेवक जेल में ही थे। बाहर रहनेवाले स्वयंसेवकों ने खुलेआम ‘जनता पार्टी’ के लिए काम किया। जनता पार्टी की सरकार चुनकर भी आयी। उसके बाद संघ पर लगी पाबंदी हटायी गयी और स्वयंसेवकों की जेल से रिहाई हुई।

(क्रमशः)

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