विराट हिन्दु सम्मेलन

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ५६

सरसंघचालक ने फ़ौरन संघ तथा विश्‍व हिन्दु परिषद के ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं की दिल्ली में बैठक बुलायी। इस बैठक में ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ के सूत्र हाथ में लेने का निर्णय किया गया और कार्य का नियोजन भी किया गया। मेवाड के महाराणा भगवतीसिंहजी, जो विश्‍व हिन्दु परिषद के अध्यक्ष थे, उन्हें इस ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ का अध्यक्ष बनाने का निर्णय भी इसी बैठक में किया गया।

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समय आगे निकल रहा था और संघ का समय के अनुसार प्रवास शुरू था। सरसंघचालक इस दौरान कई स्थानों पर प्रवास कर रहे थे। पूजनीय गुरुजी ने एक बार ‘रेल का डिब्बा यही मेरा ठिकाना है’ ऐसा कहा था। ‘सरसंघचालक’ पद सँभालने के बाद बाळासाहब ने भी श्रीगुरुजी की तरह ही तूफ़ानी यात्रा शुरू की। श्रीगुरुजी के निजी सचिव के रूप में कार्यभार सँभाले हुए डॉ. आबाजी थत्ते ही बाळासाहब के भी निजी सचिव थे। इस कारण प्रवास का नियोजन तथा अन्य बातें भी बाळासाहब के लिए अधिक आसान बन गयी थीं। इस प्रवास के दौरान बाळासाहब समाज का बारिक़ी से निरीक्षण कर रहे थे। स्वयंसेवकों का मन्तव्य सुनते थे। समाज के मान्यवरों के साथ भी चर्चा करते थे। इस दौरान देश में माहौल ग़रम था। ईमर्जन्सी के बाद चुनाव हुए। देश ने ईमर्जन्सी थोंपनेवाली सरकार को सबक सिखाया। लेकिन जनता ने चुनी हुई सरकार कुछ लोगों की नकारात्मकता के कारण टिक नहीं सकी। फिर से चुनाव हुए और पुनः इंदिराजी देश की प्रधानमन्त्री बनी थीं।

वहीं, दूसरी ओर ‘जनसंघ’ विलयित कर ‘भारतीय जनता पार्टी’ का निर्माण हुआ था। इस पार्टी ने अपनी मूल वैचारिक भूमिका को त्यागकर एक नाम का अलग ही नया प्रयोग शुरू किया था। इस कारण संघ का उत्तरदायित्व माननेवाले, इस पक्ष के कार्यकर्ता नाराज़ हुए। स्वयंसेवकों को भी, यह चल क्या रहा है इसका अंदेसा नहीं हो रहा था। वे अपनी व्यथाएँ सरसंघचालक तक पहुँचाते थे। इसी दौरान देश में ‘मिनाक्षीपुरम्’ जैसी घटनाएँ घटित हुईं। दो हज़ार परिवारों ने धर्मांतर किया था। इससे संतमहंत तो चिन्ताग्रस्त हुए ही; लेकिन साथ ही इस देश की समाजव्यवस्था का बारिक़ी से अध्ययन रहनेवालीं चौकन्नीं राजनीतिक पार्टियाँ भी इससे हड़बड़ा गयी थीं। प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने भी इस सन्दर्भ में ज़ाहिर रूप में चिन्ता व्यक्त की थी। इससे इस बात की गंभीरता हम सबके ध्यान में आ सकती है। चारों पीठों के शंकराचार्यों को तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी इंदिराजी ने इस समय आवाहन किया था। इस तरह हुआ धर्मांतर देश के लिए घातक साबित हो सकता है, ऐसा इंदिराजी का कहना था।

संघ भी इस घटना से चिंतित था ही। धर्मांतर करनेवाले, मिनाक्षीपुरम् के उन दो हज़ार परिवारों से संघ ने संपर्क किया। इन परिवारों की व्यथाएँ और उनपर हुए अन्याय की जानकारी प्राप्त कर संघ ने, उसका परिमार्जन करने के लिए गतिविधियाँ शुरू कीं। साथ ही, संघ ने देशभर में जनजागरण का कार्य अधिक फुरति से शुरू किया। इन सारी घटनाओं के चलते ही, राजधानी नयी दिल्ली में ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था। दरअसल संघ का उसके साथ ठेंठ कोई ताल्लुक नहीं था। लेकिन जो जो कार्य हिन्दुओं के हित में रहता है, वह कार्य भले ही संघ द्वारा शुरू न किया गया हो, मग़र वह ‘अपना’ ही है, ऐसा संघ का मानना है। लेकिन इस ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ के आयोजन में संघ को सहभागी नहीं किया गया था। कश्मीर के राजा हरीसिंग के पुत्र एवं काँग्रेस के नेता डॉ. करणसिंग ये इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे।

नयी दिल्ली में होने जा रहे इस सम्मेलन की तैयारी जोर-शोर से शुरू थी और बीच में क्या हुआ पता नहीं, लेकिन अचानक डॉ. करणसिंग ने अध्यक्षपद से इस्तीफ़ा देकर अपने आपको इस कार्यक्रम से अलग कर लिया। इस कारण ऐन व़क्त पर इस सम्मेलन को सफल बनाने की ज़िम्मेदारी इस सम्मेलन के पीछे रहनेवाले लोगों के कन्धे पर आ पड़ी। यह सम्मेलन होना ही चाहिए, ऐसा इंदिराजी को लग रहा था। लेकिन इतनी अल्प अवधि में इस सम्मेलन का आयोजन करने की चुनौती भला उठायेगा कौन? इंदिराजी ने बिना किसी संकोच के, सीधे संघ के दिल्ली कार्यालय से संपर्क किया। इंदिराजी के सचिव ने बाळासाहब के सचिव आबाजी थत्ते के साथ चर्चा की। ‘यह विराट हिन्दु सम्मेलन संपन्न होना ही चाहिए, ऐसा इंदिराजी चाहती हैं। इस कारण संघ इस कार्यक्रम की बागड़ोर सँभालें ऐसी इंदिराजी की अपेक्षा है, यह संदेश उनके सचिव ने आबाजी को दिया।

इंदिराजी के सत्ता में रहने के दौरान ही संघ पर पाबंदी लगायी गयी थी। उन्हीं इंदिराजी ने ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ के लिए संघ से सहयोग की माँग की, यह भी वास्तव है। ‘जो हुआ सो हुआ, उसे भूल जाओ’ यह भावना रखते हुए संघ ने भी, हिन्दुओं के हित के लिए इस सम्मेलन के आयोजन के सूत्र अपने हाथ में लेने का निर्णय किया। संघ बैरभावना रखकर प्रतिशोध की बुद्धि से कार्य नहीं करता, इसका यह समर्पक उदाहरण साबित होगा। सरसंघचालक ने फ़ौरन संघ तथा विश्‍व हिन्दु परिषद के ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं की दिल्ली में बैठक बुलायी। इस बैठक में ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ के सूत्र हाथ में लेने का निर्णय किया गया और कार्य का नियोजन भी किया गया। मेवाड के महाराणा भगवतीसिंहजी, जो विश्‍व हिन्दु परिषद के अध्यक्ष थे, उन्हें इस ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ का अध्यक्ष बनाने का निर्णय भी इसी बैठक मे किया गया।

महाराणा भगवतीसिंहजी एक महान व्यक्तित्व थे। मेवाड की भूमि ने बाप्पाजी रावळ से लेकर आज तक, देश और धर्म के लिए बलिदान देनेवाले कई वीरों को जन्म दिया है। भगवतीसिंहजी भी इसी परंपरा से थे। राजस्थान में ज़बरन परधर्म में प्रवेश किये हुए कई परिवारों को पुनः अपने मातृधर्म में प्रवेश करना था। संघ ने इसकी ज़िम्मेदारी ज्येष्ठ प्रचारक मोरोपंतजी पिंगळे पर सौंपी थी। इन परिवारों को, ‘हिन्दु धर्म में पुनः प्रवेश करने के बाद क्या हमें अपनाया जायेगा’ ऐसी चिन्ता सता रही थी। इसीलिए उन्होंने, क्या महाराणा भगवतीसिंहजी हमारा स्वीकार करेंगे?’ ऐसा सवाल मोरोपंतजी से किया। मोरोपंतजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘‘वे केवल स्वीकार ही नहीं करेंगे, बल्कि वे आपके साथ बैठकर भोजन भी करेंगे।’’ यह सुनकर इन परिवारों को बहुत बड़ा आधार प्रतीत हुआ। आगे चलकर वाक़ई महाराणा भगवतीसिंहजी ने एक भव्य कार्यक्रम में इन डेढ़ लाख लोगों के साथ भोजन किया। उस कार्यक्रम में वे सभी लोग सामुदायिक विधियों के द्वारा हिन्दु धर्म में वापस लौट आये।

ऐसे महाराणा भगवतीसिंगजी ‘विराट हिन्दु सम्मेलन’ के अध्यक्ष बने। उनकी अध्यक्षता में इस सम्मेलन का आयोजन संपन्न हुआ। उसे मिली सफलता देखकर स्वयं इंदिराजी भी खुश हुईं। इसके ज़रिये इंदिराजी को संघ की क्षमता का पुनः एक बार परिचय हुआ। उसके बाद शुक्रिया अदा करने के लिए इंदिराजी के सचिव ने आबाजी को ङ्गोन किया। ‘क्या सरसंघचालक इंदिराजी के लिए कोई सन्देश देना चाहते हैं’ ऐसी पृच्छा भी उन्होंने उस समय की। उसपर बाळासाहब ने जवाब भेजा, ‘जम्मू-कश्मीर के लिए रहनेवाला कलम ३७० ख़ारिज़ कर दीजिए और देश में समान नागरी क़ानून लागू कर दीजिए। यदि यह हुआ, तो स्वयं बाळासाहब देवरस आपका ज़ाहिर रूप में स्वागत करेंगे।’

इसके कुछ समय बाद, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए। यहाँ पर ‘नॅशनल कॉनफेरेन्स’ सत्ता में थी। इन चुनावों में भी यही पार्टी सत्ता में क़ायम रहेगी, ऐसा ही सभी को लग रहा था। लेकिन इंदिराजी ने जम्मू-कश्मीर के इन चुनावों में हिंदुत्ववाद का भी आधार लिया। इससे यह हुआ कि जहाँ पर काँग्रेस के उम्मीदवार बड़ी मुश्किल से चुनकर आते थे, वहाँ पर काँग्रेस को बहुत बड़ी सफलता मिली। वहीं, भारतीय जनता पार्टी को एक ही सीट मिली। इससे उनके लिए आवश्यक रहनेवाला संदेश उनतक एकदम सुचारु रूप में पहुँचा। ‘अपना मूल वैचारिक अधिष्ठान त्यागकर नहीं चलेगा’ यही वह संदेश था।

इन चुनावों के बाद, इंदिराजी की संघविषयक जो भूमिका थी, उसमें बहुत बड़े बदलाव आने शुरू हुए थे। उतने में संजय गाँधी का विमान दुर्घटना में निधन हुआ। इस दुखद घड़ी में बाळासाहब ने इंदिराजी की सांत्वनाभेंट के लिए अपॉईंटमेंट की माँग की थी। लेकिन इंदिराजी के सचिव ने यह बात उनतक पहुँचायी ही नहीं थी, यह बाद में स्पष्ट हुआ। क्योंकि ‘ऐसी परिस्थिति में यदि बाळासाहब मुझसे आकर मिलते, तो मुझे अच्छा लगता’ ऐसा इंदिराजी ने कहा था। बाळासाहब ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की थी, यह बात उनतक पहुँची नहीं थी।

ख़ैर! बाळासाहब ने, अख़बारों को दी प्रतिक्रिया के द्वारा इस दुर्घटना के बारे में संवेदनाएँ व्यक्त की थीं। उसके कुछ समय बाद इंदिराजी की हत्या हुई। इस कारण प्रत्यक्ष रूप में दोनों की मुलाक़ात नहीं हो पायी।

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