पहला स्वतंत्रता संग्राम !

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग ६

शिवाजी महाराज ने केवल अपने राज्य का ही विचार नहीं किया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। महाराज के ही समकालीन रहनेवाले छत्रसाल, वीर दुर्गादास, महाराज राजसिंग और अन्य राजाओं ने शिवाजी महाराज से प्रेरणा ली थी। अत: महाराज का राज्य कितना बड़ा था अथवा उन्होंने कितने समय तक शासन किया, इसकी अपेक्षा उन्होंने भारतवर्ष को जो स्फूर्ति प्रदान की, वह अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हुई। शिवाजी महाराज में चाणक्य की राजकीय दृष्टि और चंद्रगुप्त मौर्य के शौर्य का संगम था। जो राजा चरित्रवान् होगा और जिसके पीछे प्रजा का जनाधार होगा, वही राजा सबसे सामर्थ्यवान साबित होता है, ऐसा आचार्य चाणक्य का कहना था। महाराज के साथ उनकी सारी प्रजा का एकत्रित जनाधार था और इसीलिये शिवाजी महाराज इतिहास के सबसे प्रभावी राजा साबित होते हैं, क्योंकि वे प्रजा के राजा थे।

मुगलों की सत्ता को कमजोर करने का कार्य शिवाजी महाराज ने और उनसे प्रभावित हुए कुछ राजाओं ने किया। महाराज का अगला कार्य पहला बाजीराव पेशवा ने किया। इसके बाद मुगल कभी सिर नहीं उ़ठा सके। परन्तु इसी दौरान युरोपीय देशों की नज़र भारत पर पड़ चुकी थी। उन्हें इस संपन्न देश को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाना था। यहाँ की संपत्ति देखकर उनके मुँह में पानी आ रहा था। इसीलिये अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज इनमें भारत पर वर्चस्व कायम करने की होड शुरु हो गयी। इसके लिये उन लोगों ने यहाँ के राजाओं को भी इस्तेमाल किया। इनमें सबसे क़ामयाब साबित हुए अंग्रेज़। उन्होंने यहाँ की परिस्थिति का, सामाजिक जीवन का अच्छी तरह अभ्यास किया था। अपना राज्य स्थापित करने के लिये उन्होंने गद्दारों का बड़ी चालाक़ी से इस्तेमाल किया।

यहाँ पर बाहर से आये हुए शासकों को इस देश के प्रति ममता नहीं हैं, यह अंग्रेज़ों की समझ में आ गया। इसीलिये धीरे-धीरे उन्हें ख़त्म करना अंग्रेजों के लिये आसान हो गया। सन् १७५७ में प्लासी का युद्ध हुआ। इस युद्ध में  मीर जाफर ने अंग्रे़ज़ों की सहायता की और उसे उसका ‘फल’ मिला। शुरू शुरू में तो अंग्रेज़ों ने उसे सत्ता प्रदान की, लेकिन कुछ समय बाद उसे फेंक भी दिया। देश में कई जगहों पर ऐसे मीर जाफर थे। उनका इस्तेमाल करके अंग्रेज़ों ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अंग्रेज़ों की सत्ता का विस्तार होते समय, देश में कोई समर्थ शासक नहीं था। पहले बाजीराव पेशवे की, माधवराव पेशवे की अकाल मृत्यु ना हुई होती, तो देश का इतिहास बदल गया होता। परन्तु वह होना नहीं था। इसके कारण अंग्रेज़ों का अगला रास्ता निष्कंटक हो गया।

पहला-स्वतंत्रता-संग्राम

प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने इस देश में अपना डेरा जमा दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि कुछ भारतीयों को प्रभावित करने में अंग्रेज़ सफल हो गये। फिर भी ‘ईस्ट इंड़िया कम्पनी’ को भारत में राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षित यश क्यों नहीं मिल पा रहा है? ऐसा प्रश्न ब्रिटिश पार्लमेंट में पूछा जा रहा था। इन प्रश्नों के उत्तर खोजे जा रहे थे। इस दौरान लॉर्ड मेकॉले नाम के एक ब्रिटिश राजनयिक ने भारत का गहरा अध्ययन किया। इस कार्य के लिये उसने भारत की यात्रा की थी। उसके द्वारा दर्ज़ किये गये निरीक्षण आज भी कुछ लोगों को उस वक्त के भारत की वास्तविक पहचान करवाने वाले साबित हो सकते हैं।

“भारत में दंगे-फ़साद नहीं हैं। सभी लोग आपसी भाईचारे से रह रहे हैं। संपन्नता है, गरीबी नहीं हैं, लोग एक-दूसरे की सहायता करते हैं, एकता से रहते हैं। अनेक भाषाएँ होने के बावजूद भी, लोगों की जीवनशैली एकसमान है। इस देश में काफी संपन्नता हैं। ऐसे इस देश में यदि अपनी राजकीय ताकत बढ़ानी हो, तो हमें भारतीयों की मानसिकता बदलनी होगी। इसके लिये इस देश में नयी शिक्षा पद्धती लानी होगी।” ऐसा मेकॉले ने कहा था। मेकॉले के द्वारा भारत में लायी गयी शिक्षापद्धति का उद्देश्य इससे स्पष्ट होता है। इस शिक्षापद्धति में भारतीयों की गौरवशाली परंपरा को कपटपूर्वक छिपा दिया गया। इतिहास को गलत तरीके से पेश किया गया। संस्कृत जैसी हमारी सर्वश्रेष्ठ परिपूर्ण भाषा को समाप्त करने का पूरा-पूरा प्रयत्न इस शिक्षापद्धति ने किया। इसके परिणाम हम आज भी भुगत रहे हैं।

मैं बी.ए. की परीक्षा दे रहा था। परीक्षा में ‘म्युटिनी ऑफ १८५७ – एक्सप्लेन इन डिटेल’ ऐसा प्रश्न था। इस प्रश्न को पढ़कर मैं दंग रह गया। स्वतंत्र भारत में आज भी हम सन १८५७ की क्रान्ति को ‘म्युटिनी’ यानी विद्रोह कहते हैं। आज भी हमें यही सीख दी जाती है? मुझसे यह बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं हुआ। उत्तर लिखते समय, सबसे पहले मैंने – ‘यह प्रश्न ही गलत है’ ऐसी टिप्पणी की। ऐसा करके मैंने खतरा मोल लिया था, परन्तु मुझे उसकी कोई परवाह नहीं थी। ‘सन १८५७ की क्रान्ति यह ‘प्रथम स्वतंत्रतासंग्राम’ था।’ वीर सावरकर का यह वाक्य मैंने उत्तर में लिखा और फिर इसका पूरा विवरण दिया। मार्क देनेवाला परीक्षक शायद सच्चा देशभक्त रहा होगा, क्योंकि इस पेपर में मुझे अच्छे मार्क मिले। १८५७ की क्रान्ति का जब विचार करता हूँ, तब यह घटना याद आ जाती है।

१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में यदि सारा देश शामिल हो गया होता, नानासाहेब पेशवे को सबने अपना नेता मान लिया होता, तो हालात कुछ अलग ही होते। अंग्रेज़ों को ९० वर्ष पहले ही यह देश छोड़कर जाना पड़ता। इन ९० वर्षों में अंग्रेज़ इस देश पर सुचारु रूप से राज्य नहीं कर सके। उनके सामने काफी प्रचंड चुनौतियाँ आती रहीं। देशभर में क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों को चुनौतियाँ दीं। इनमें महाराष्ट्र और बंगाल अग्रणी थे। लोकमान्य तिलक ने सिर्फ महाराष्ट्र को ही नहीं, बल्कि सारे देश को जगाया। ‘केसरी’ में छपे उनके अग्रलेख ब्रिटिश सरकार को झकझोर दिया करते थे। इसी के साथ, तिलकजी ने नौजवानों को राष्ट्रकार्य की प्रेरणा दी। महान देशभक्त और क्रान्तिकारियों के पितामह पंडित शामजी कृष्ण वर्मा ने लंडन में ‘इंडिया हाऊस’ का निर्माण किया था। यहाँ पर भारतीय छात्रों को ‘स्कॉलरशिप’ दी जाती थी। तिलकजी के द्वारा की गयी सिफ़ारिश के आधार पर यहाँ ‘विनायक दामोदर सावरकर’ नाम के छात्र को शिष्यवृत्ति मिली थी, इस बात पर ग़ौर करना चाहिये। जब तिलकजी यह सब कुछ कर रहे थे, तभी लाला लजपतराय ने पंजाब में क्रान्ति की आग भड़का दी। भगतसिंग, सुखदेव इत्यादि अन्य देशभक्तों के सामने लाला लजपतराय का आदर्श था।

यह सारा इतिहास तो हम जानते ही हैं। परन्तु आज परतंत्रता के बारे में बात करते समय हम सहजता से बोल जाते हैं कि ‘अंग्रेज़ों ने इस देश पर डेढ़ सौ साल राज्य किया’। इतिहास की दृष्टि से यह सही नहीं है। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के महत्त्व को हमने नहीं पहचाना। अंग्रेज़ों की सत्ता को उठाकर फ़ेंक देने के लिये भारतीयों द्वारा दी गयी वह पहली टक्कर थी। नानासाहेब पेशवे, तात्या टोपे, झाँसी की रानी, कुवरसिंह इत्यादि के पराक्रम के कई अध्याय इस इतिहास में समाविष्ट हैं। भारतीयों को उनका स्मरण करना ही चाहिये। हम भारत पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी राज्य करते रहेंगें, ऐसी धारणा अंग्रेज़ों ने बना रखी थी। परन्तु ९० वर्षों में ही अंग्रेज़ों को यहॉं से बोरिया-बिस्तर समेटकर चले जाना पड़ा। उस समय दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को यहाँ से पीछे हटने के लिये भारतीयों ने मजबूर कर दिया। यदि आज भी यदि सारे भारतीय एकसंघ हो जायें, तो दुनिया की कोई भी ताकत भारतीयों को रोक नहीं सकती। यदि इतिहास का अध्ययन करें, तो समय-समय पर यह तथ्य सिद्ध हो चुका है, ऐसा हमारे ध्यान में आयेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने से पहले डॉ. हेडगेवार को भारत का यही इतिहास संकेत दे रहा था।(क्रमश:)

– रमेशभाई मेहता 

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