समर्थ इतिहास-९

आदर्श राजा, आदर्श शासनव्यवस्था, आदर्श शासकीय अधिकारी, आदर्श लष्करी व्यवस्था, आदर्श धर्माचार्य, आदर्श भक्तिमार्ग, आदर्श शिक्षापद्धती, आदर्श आचार्य, आदर्श व्यापार और आदर्श प्रजा यानी ‘रामराज्य’ और ऐसा रामराज्य अयोध्या के बाद भारतीय इतिहास ने फिर एक बार देखा, महाविष्णु के नि:सीम भक्त रहनेवाले समुद्रगुप्त, दत्तदेवी और धर्मपाल के कालखंड में ही।

समुद्रगुप्त के बाद वर्ष ३८० में दत्तदेवी के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय शासन करने लगे और इन्होंने भी इनके माता-पिता के आदर्शों के अनुसार ही शासन किया। इन्होंने ‘विक्रमादित्य’ यह नामाभिधान धारण किया और इन्हीं विक्रमादित्य के नाम से विक्रमसंवत् आरंभ हुआ। इनके पश्‍चात् इनके पुत्र कुमारगुप्त के संपूर्ण कार्यकाल में भी संपूर्ण समाजव्यवस्था और शासनव्यवस्था इसी तरह चलती रही। परन्तु इनके कार्यकाल के बाद भारत में फिर एक बार दुर्भाग्य की आँधी चलने लगी। धीरे धीरे साम्राज्य के टुकड़े होते गये और फिर एक बार कई छोटे छोटे स्वतंत्र राज्य उत्पन्न होकर वे राज्य भोगवादी एवं आचारहीन राजाओं के कब्ज़े में चले गये। धर्मप्रवृत्त एवं नीतिमान शासन का अंकुश न रहने के कारण फिर एक बार धार्मिक पंथों में वितुष्ट बढ़ने लगा, साथ ही नकली धर्ममार्तंडों को मौका मिल गया। स्वर्ण युग में रहनेवाला केवल भौतिक स्वर्ण उस वक्त भी भारतीय राज्यों में विपुल मात्रा में था और फिर अति दुर्बल हुए इन धनिक राज्यों की ओर देखने की विदेशी आक्रमकों की दृष्टि बदल गयी। इन असमर्थ वैभवसंपन्न प्रदेशों को लूटने का रास्ता उनके लिए खुल गया।

विभिन्न धार्मिक पंथ एवं उपपंथ, उनके बीच रहनेवाली असहिष्णुता एवं विद्वेष और छोटे छोटे राज्यों में निरंतर चलनेवाली लड़ाइयॉं इस कारण यह भारत भीतर से खोखला बनता चला गया और शक्तिहीन हुए भारत को नोंचना यह किसी भी आक्रमणकारी के बायें हाथ का मैल बन गया।

कोई भी समाज जब नीतिमान, श्रद्धावान और बल की उपासना करनेवाला होता है, तब ही वह स्वयं की सुरक्षा करने में समर्थ होता है। आक्रमणकारियों को दोष देने से कुछ भी हासिल नहीं होगा; क्योंकि हर एक मनुष्य को जीवाणु तब ही रोगग्रस्त बना सकते हैं, जब उस मनुष्य की रोगप्रतिबंधक (रोगप्रतिरोधी) शक्ति क्षीण हो चुकी होती है।

अपने पूर्वज कितने महान थे, यह जानना अत्यंत आवश्यक ही होता है; क्योंकि इस वैभवशाली इतिहास के सभी दृष्टि से किये अध्ययन के कारण ही, पुन: एक बार वही कीर्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास करने का सामर्थ्य और सही दिशा प्राप्त होती है।

भक्तिमार्ग का अवलंबन, मर्यादापालन यानी प्रज्ञापराध न होने देना, बलोपासना (बल की उपासना) और भक्तिमार्ग के कारण बढ़ती जानेवाली संघभावना इन चार साधनों से ही प्राचीन संस्कृति का और इतिहास का भारत फिर एक बार रामराज्य की स्थापना कर सकता है।

मित्रों, इस लेख के परिणाम के रूप में समुद्रगुप्त के आने की आस लगाकर मत बैठना कि कहीं से समुद्रगुप्त आकर ऐसे राज्य को पुन: स्थापित करेगा ऐसे मनोराज्य में मत खो जाना; यदि हर कोई अधिक से अधिक प्रमाण में ऊपरोक्त चार साधनों का अपने जीवन में अवलंबन करता है, तो हर कोई समुद्रगुप्त का समर्थ अंश ही बन जायेगा, इस बारे में मुझे बिलकुल भी संदेह नहीं है।

आदर्श समुद्रगुप्त के कालखंड के आदर्श को सामने रखकर ही उसके अनुसार हर एक भारतीय को चलना है। वसंतोत्सव का आकर्षण हर किसी को होता है; परन्तु इस उत्सव के लिए शेष बाकी बचे वर्ष को, आलस्य दूर कर परिश्रम, भक्ति और सेवा से संपन्न करना होता है, यह बात भुलायी जाती है।

मित्रों, भारत पुनः वैसा ही समर्थ वसंतोत्सव देखने वाला है, यह तो निश्‍चित है, परन्तु उस कालखंड के शुरू होने से पहले आनेवाले भीषण युद्ध की कालनदी से हम पार हो जायेंगे तब ही।

(समुद्रगुप्त प्रकरण समाप्त)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है।)

 

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